काव्य-निर्णय ४१५ दासजी ने दिया है "लसत चंद सों...." रूप-"रज-याशोभते चद्रश्चंद्रणापि निशीथिनी" दिया है। ____अन्योन्य का अर्थ-परस्पर है, अतएव यहाँ दो वस्तुत्रों को परस्पर एक जाति को क्रियाओं का उत्पादक कहा जाता है, क्योंकि दोनों ही अन्योन्य रूप से एक- दूसरे में वही विशेषता उत्पन्न करते हैं, जो एक-दूसरे में हो-दोनों एक-दूसरे के प्रति वही कार्य करते हैं, जो एक-दूसरे के लिये समान रूप से हो, इत्यादि । ___केडिया ( अर्जुनदास ) जी के भारती-भूषण में इसके तीन भेद-"जिसमें पारस्परिक कारणता (एक-दूसरे के कारण होने.) का वर्णन हो वहां, जिसमें परस्पर के उपकार का वर्णन हो वहां और जिसमें परस्पर समान व्यवहार ( जैसा कोई करे वैसा-ही उसके साथ करना ) करने का वर्णन हो वहाँ, कहे हैं और इनके पृथक-पृथक् उदाहरण भी दिये गये हैं। अतः केड़िया जी द्वारा दिये गये इन भेदों पर पोद्दार कन्हैयालाल जी की संमति है कि "प्राचीनों की निर्दिष्ट--एक जाति की क्रियानों का परस्पर में उत्पादक होना" रूप लक्षण में केडिया जो कथित तीनों भेदों का समावेश हो जाता है, इसलिये उपकारात्मक तथा व्यवहारात्मक क्रियाओं का होना उदाहरणांतर मात्र है, पृथक्-पृथक् भेद नहीं, अतः ये ( भेद) अनुपयुक्त हैं।" अन्योन्य के और उदाहरन जथा- मोल-तोल के ठीक बँनि, इन किय साँझ सकॉम । वौ निसि बढ़बत लेति गथ, कहि-कह लालै-स्याँम ।। - हरि की औहरिदास का, 'दास' परसपर रोति । देत ए उन्हें, वे इन्हें,' कनक-बिभूति सप्रीति ॥ ज्यों-ज्यों तैन-धारा किऐं, जल-प्यावति रिझिबारि । पिजात त्यों-त्यों पथिक, बिरली-पोख-सँभारि ॥ बातें स्याँमा-स्याँम को न वैसी बाली,स्याँम- स्याँमा-तकि भाजे,स्याँमा स्याम सों जकी रहै। पा०-१. (रा० पु० प्र०) करि...। २. (प्र०) यह किय साहस काम | ३. (३०) कहँ । ४. ( का० ) (३०) उन्हें...। ५.( का०) (प्र.) बिरलो बेत्र सँवारि । (३०) रिलो बोल सँवारि।
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