पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५०७

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४७२ काव्य-निर्णय "जहि जीवन-मूरि को लाहु अली, वै भनी जुग-चारि लो जीबी करें। 'द्विजदेव जू' त्यों हरखाइ हिऐं, बर-न-सुधा-मधु पीबी करें। कछु धूघट खोल चितै हरि-मोरेन, चौथ-ससी-दुति लीबी करें। हम तौ बज को बसबौई तज्यो, अव चाव-चवाइने कीबो करें ॥" हम एक कुराह चली तो चली, हटको इन्हें ए नौ कुराह चलें। इहि तो बलि मापुनों सूझती हैं, न - पालिऐ सोई जो पाले-पलें ॥ 'कवि ठाकुर' प्रीति करी है गुपाल सों, टेरें कहों, सुँनों ऊँचे गर्ने । हमें नींकी लगी सो करी हमनें, तुम्हें नींकी लगौ न लगौ तौ भलें । छठयों प्रमान 'अनुपलब्धि' उदाहरन जथा- यो जु' कहों कटि नौहिँ तौ, कुच हैं कोंन अधार । परॅम इंद्रजाली मर्दैन, ता' को चरित अपार ।। सातयों प्रमान -संभव उदाहरन जथा- होती बिकल बिछोह की, तँनक-भँनक सँ नि काँन । मास - पास - दै नात हौ, याहि गँनों बिन-प्रॉन ॥ उपजेंगे है हैं अजों, हिंदूपति से दॉनि । कयौ काल निरबधि अबधि- बड़ी बसुमती जाँनि । वि०-"नीति वाक्य-युक्त संभाव-प्रमाण का उदाहरण ठाकुर कवि रचित यह भी सुंदर है, यथा- "सामिल में, पीर में, सरीर में न भेद राखें, हिंमत-कपाट को उघारें तो उघरि जाइ । ऐसौ ठाँन-ठाँनें तो बिना-ही जंत्र-मंत्र किएँ, साँप के जैहैर को उतारें तौ उतरि जाह ॥ 'ठाकुर' कहत कछु कठिन म जॉनों थे, हिंमत किए ते कही कहा ना सुधरि जाइ । चारि जैनें चारि-हूँ दिसा ते चारों कोंने गहि, मेरु को हलाइ के उखारें तो उखरि जाइ ॥ पा०-१. (३०) यों न...! (सं० पु० प्र०) जौन कहो...। २. (का०) (प्र.) (सं० पु० प्र०) केहि... (३०) किहि.... ३. (का०) (३०)(प्र०) विधि को... । ४. (का० ) (३०) (प्र.) कहीय.... ५. (का० ) (३०) निरवधिमलख.... (सं० प्र० प्र०) निरभवधि-लखि,।