पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५२५

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४६० काव्य-निर्णय मंमट प्राचारज इहाँ, ऐसौ कियौ विवेक। परिसंल्यालंकार कों, समझो पंडित एक॥ अर्थात् अापने-शन्दगत बर्जनीया, शन्दगतम्बर्जनीया अप्रश्न पूर्विका, शन्दगतबर्जनीया प्रश्न पूर्विका श्लेषमूल, प्रश्न पूर्विका अर्थगत बर्जनीया श्लेष- मूल और अप्रश्नपूर्विका शब्दगत बर्जनीया श्लेष-रूप परिसंख्या पाँच प्रकार की मानी है।" अथ प्रथम परिसंख्या प्रस्न-पूर्वक को उदाहरन जथा- आज कुटिलता कोंन में, राज-मनुष्यन-माँहिं। देख्यौ बूझि बिचारि के, ब्याल-बंस में नाँहि ॥ दुतिय परिसंख्या बिना प्रस्न पूर्वक जथा- मुक्ति बेन-ही में बसै, अँमी' बस अधरौ नि । सुख सुंदरि-सजोग-ही, और ठौर जनि जाँनि । तीसरी परिसंख्या प्रस्न-अप्रस्न पूर्वक जथा- भोर-उठि न्हाइबे को न्हाती असुवान- माँहि'. ध्याइबे को ध्यावं तुम्हें जाती बलिहारिऐ। खाइबे कों खाती चोट पंचबॉन - बॉनन की, पीयबे को लाजै धोइ पीबति बिचारिऐ॥ . ऑखि लगिबे को 'दास' लागी रहै' तुम्ह-ही सों, बोलिदे को बोलति बिहारिऐ - बिहारिऐ। सूझिमें कों सूझति तिहारो-ही सरूप वाहि, बूझिबे को बूझत लाल' चरचा तिहारिऐ॥ वि०-"दासजी के प्रश्न-अप्रश्न पूर्वक उदाहरण-रूप इन दोनों दोहों के शहश भारती-भूषण में दिए गए उदाहरण रूप निम्न दोहे भी सुंदर है, यथा- "छल मध्या-मॅन नाह के, नेह छिपान-माँहि । भी पति-परिहास तजि, राँमाज में नाँहि ॥" पा०-१. (३०) (सं० पु० प्र०) अमृत.... २. (का०) (३०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) ही सों, । ३. (का० ) (३०) (प्र०) लाज...। (३०) बहै...। ५.(३०) झिते...। ६. (का०) (०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) बूझे...19..(रा० पु० नी० सी०) बाल...।