काव्य-निर्णय ५०५ की अनेक अवस्थात्रों में क्रमिक उत्कृष्टता बतलाना -विषय भी इस अलंकार के अंतर्गत श्रा जाता है । यहाँ स्वरूप, धर्म-श्रादि का उत्तरोत्तर उत्कर्षक वर्णन किया जाता है, जिससे इसके कई भेद बन जाते हैं । बा० ब्रजरनदास (अलं- काररन में ) कहते हैं कि “यहाँ उत्कर्ष भली-बुरी दोनों बातों में हो सकता है, पर उसे अपकर्ष कहना उचित नहीं ज्ञात होता, क्योंकि इसके तीनों नामों में उत्कर्ष वा उत्कृष्टता-ही का भाव निहित है, अपकर्ष का नहीं, किंतु- "रहिमन वे नर मर चुके, जे कहुँ मांगन जाँह। उँन से पहले वे मरे, जिन मुख निकसत 'नाँई'।" यहाँ उत्तरोत्तर कथित वस्तु का अपकर्ष वर्णन है और उक्त अलंकार का सुंदर उदाहरण भी है, अतः श्रापका मत मान्य नहीं हो सकता। यही बात केडियाजी ने भी कही है कि "सार अलंकार कहीं-कहीं उत्तरोत्तर अपकर्ष में भी माना गया है, किंतु सार शब्द का स्वारस्य उत्कर्ष में हो है, अतः हमारे विचार से उत्कर्ष में सार मानना चाहिये। श्राचार्य मम्मट ने इसका लक्षण पूर्व-कथित रूपानुसार इस प्रकार माना है-"उत्तरोत्तमुत्कर्षों भवेन्सारः परावधिः' (जहाँ एक के अनंतर दूसरे का क्रमशः उत्कर्ष, बड़प्पन ) अंतिम सीमा तक पहुँचा दी जाय वहाँ सार ( उत्तरोत्तर) होता है । साहित्य-दर्पण में भी यही बात कही गयी है- 'उत्तरोत्तरमुत्कर्षो- वस्तुतः सार उच्यते.' ( वस्तु का उत्तरोत्तर उत्कर्ष वर्णन करना सार है ) । साथ- ही अापने काव्य-प्रकाश में दिया गया उदाहरण तद्वत् अपना लिया है। चंद्रालोककार ने इसका दूसरा लक्षण माना है, जैसे-"सारोनाम पदोत्कर्षः सारताया ययोत्तरं" । अर्थात्, जहाँ किसी रूप में गुण-प्रदर्शित करते हुए यह कहा जाय कि इस कार्य का यही 'सार' है, तो वहाँ सारालंकार होगा । उदाहरण भी इसके अनुरूप दिया है-"सारं सारस्वतं काय कायंतन शिवस्तवः' (विद्या- ध्ययन का सार कविता है और काव्य का सार शिव-स्तुति है ) यही लक्षण और तद्वद् उदाहरण ब्रजभाषा के प्राचार्य श्री चिंतामणि ने इस प्रकार दिया है- ५ . "जहाँ कोंन - है बात में, कछुपरनिऐं सार । ____ सो उत्तर उतकर्ष यों, सुनिऐं-सार विचार ॥" "पुहुमि - सार बारानसी, वा में पंडित सार। . .. . बहुरि पंडितन में समझि, सार सुझम-विचार ॥" सायही आपने 'उदार' को पृथक् अलंकार मानते हुए लिखा है-
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