५२० काव्य-निर्णय नंद विद्यासागर भो-"अप्रस्तुताया अप्रस्तुताया च एकानुगमन क्रिया संबंधः" कहते हुए श्री वामनाचार्य का ही अनुमोदन करते हैं। अस्तु, संस्कृत तथा ब्रजभाषा के प्रथों में इस अलंकार के जितने भी उदाहरण देखे जाते हैं उन सब में केवल क्रिया का ही उपयोग है। यह क्रिया का उपयोग कारक, माला, प्रावृत्ति और देहरो-दीपको में ही नहीं, किंतु सभी दीपकों में नियमित रूप से होती है। कहीं-कहीं श्रावृत्ति-दीपक के भेद "पदावृत्ति दीपक" और "यमक" में साम्यता नजर आती है, किंतु पदावृत्ति दीपक एक प्रकार से यमकालंकार का रूपांतर-मात्र होते हुए भी दोनों में काफी अंतर है। पदावृत्ति दीपक में क्रिया की श्रावृत्ति होती है और यमक में अक्रिया-पदों को श्रावृत्ति होती है, इत्यादि..." श्रावृत्ति दोपक 'सरस्वती-कंठा-भरण' के अनुसार केवल क्रिया- वाचक शन्दों के प्रयोग से ही नहीं, क्रिया-वाचक शब्दों के रहित भी होता है। प्रथम दीपक अलंकार उदाहरन जथा- ऑनन-पातप पेखि के, चलै डंक' कहुँ पाँइ । सुमन-अंजलो लेति कर, अन रंग है जाँइ ।। अथ श्रावृत्ति-दीपक उदाहरन जथा- रहे थकित है, चकित है, सुंदरि रति है नि । तुब' चितोंनि लखि, ठोनि वकि, भृकुटि-नोंनि लखि रोंनि । वाही घरी ते न साँन रहे, न गुमान रहे, न रहै सुघराई । 'दास' न लाज को साज रहे, न रहे तनको घर-काज की धाई॥ पा०-१.( का०) (३०) (प्र०) देखि हूँ...। २ (सं० पु० प्र०) डगै...। ३.( का०) (०) (सं० पु० प्र०) कर सुमनंजलि लेति है। ४.(का०)(३०) (प्र.) रहै...। (का)(३०)...चकित , थकति है...। (३०) थकित भरु चकित है...। ५. ( का०) (३०) (प्र०) समर सुदरी...। ६.( का० ) (प्र.) तुम...। ७.( का०)(प्र०) लसि... (4.) तुम चितौन ठिकुठौंन भ्रुव, नोंनि निरखि मन- रोनि । .( नि०) ग्यान रहे, न रहे सखियानि की सीख सिखाई । ६.(३०) (प्र.)... (०नि०)..., नरहे सजनी गृह काज की पाई।
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