पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/५५७

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५२२ काव्य-निर्णय इसने में प्रसन-समों-बेला बखि ख्याल बा अटपटा हुआ। अवनी से नम, नभ से अवनी, उछले भगु नट का बटा हुभा ॥" अथ उभयावृत्ति (पद-अर्थावृत्ति) दीपक उदाहरन जथा- पेच-छुटे, चंदन-छुटें, छुटें पसीनाँ-गात । छुटी लाज, अब लाल किन्ह, छुटे बंद कित' जात ।। तोरयौ नृप-गँन को गरब, तौरयौ हर' को दंड | रॉम जाँनकी-जीय कौ, तोरयौ दुख्ख-अखंड ।। अस्य तिलक इन दोनों उदाहरन में पद-छुटे अरु तोरयौ सबद ते पन की भावृत्ति अरु पेच, चंदन, पसीना-भादि तथा गरम, हर-कोदड़ अरु दुख्ख-अखंड ते अर्थ की भावृत्ति जाननी। ___अथ 'देहरी दीपक' लच्छन जथा- परै एक पद बीच में, दुहुँ दिस लागै सोइ । सो है 'दीपक-देहरी', जॉनत हैं सब कोइ ।। वि०-"जहाँ मध्य में पड़ा पद दोनों ओर ( तरफ-श्रागे-पीछे ) अर्थ को प्रकट करे वहाँ 'देहरो-दीपक' अलंकार कहा गया है। अर्थात् जहाँ एक कार्य के आयोजन करने से दूसरा कार्य भी प्रस्तुत हो जाय-बन जाय, वहाँ देहरी (लो) दीपक..."। देहरी-दीपक भी एक न्याय का प्रकरण है, जिसमें देहरी पर रखे हुए दीपक के कारण बाहर-भीतर दोनों ओर प्रकाश होता है। यही इस अलंकार की विशेषता है।। काव्य में न्याय-सूत्रों का बहुधा समावेश पाया जाता है। ये न्याय-सूत्र छत्तीस (३६ ) कहे जाते हैं, यथा-"अजापुत्र, अरण्यरोदन, अरु धती, अंधकवर्तकीय, अंधगज, अंधदर्पण, अंधपरंपरा, कदलीफल, काकतालीय, कूप- मंडूक, कूर्मांग, कैमुक्तिक, कोंडिन्य, गड्डरिकाप्रवाह, गणपति, घट-प्रदीप, धुणा- क्षर, चंद्र-चंद्रिका, जल-तरंग, जल-तुबिका, तिल-तंडुल, दंडाचक्र, दंड-पूपका, देहरो-दीपक, नृसिंह, पिष्टपेषण, पंग्वध, बीजांकुर, मंडूक-प्लुति, यक्षवृक्ष, रात्रि-दिवस, वृद्ध-कुमारो-वाक्य, सुंदोपसुंदन, सचोकटाह, स्थालीपुलाक और क्षीर-नीर-आदि..." पा०-१. (का०) र (२०) उत" । २. (का०) हर-कोदंड।