पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६५२

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काव्य-निर्णय ६१७ . अस्य तिलक "या कवित्त-अंतर-वरन, लै तुकंत है छंड। दास-नाम, फुल-मॉम कहि, राम-भक्तिरस मंड॥" बि०-"दासजी कृत यह मध्याक्षरी-ग्रहण-बद्ध चित्रालंकार है, जिसमें आपका नाम, भाई का नाम, पिता का नाम, बाबा ( पितामह ) का नाम, प्रपिता- मह का नाम, देस और ग्राम का नाम एक-एक अक्षर छोड़ने से बनते हैं। जैसे-"भिखारी दास कायस्थ, बरन-वाहीवार, भाई चैनलाल को, सुत कृपालदास को, नाती बीरभान को, पनाती रामदास को, अरबर देसु, टेंउँगा नगर कौ" और जैसा अक्षर स्थित अंकों से ज्ञात होता है। एक बात और, वह यह कि यह 'तिलक' रूप दोहा केवल तीन–प्रतापगढ़ राज्य-पुस्तकालय, काशी राज्य पुस्तकालय और सौंमेलन प्रयाग की ही प्रतियों में मिलता है, अन्यत्र नहीं। अथ चित्रकान्य-भूषन-संख्या कथन- भून छयासी अर्थ के, पाठ बाक' के जोर । तिन चारि पुनि कीजिए, अनप्रास इकठोर ॥ सब्दालंकृत पाँच गॅनि, चित्र-काव्य इक पाठ। इकइस बातादिक सहित, ठीक सात-पर' आठ॥ वि०--'दासजी ने इन दोनों दोहों में 'काव्य-निर्णय' के अलंकारों की संपूर्ण संख्या का-योग उनके भेदादि छोड़ कर दिया है। यह संख्या उक्त दोहों के अनुसार एक सौ प्राट (१०८) है । यथा-१,अर्थालंकार-८६, २, वाक्यालंकार-८, ३,काव्यगुणांतर्गत वर्णित अलंकार-३, ४,अनुप्रासा- लंकार-४, ५,शब्दालंकार-५, ६,चित्रालंकार-१, ७,रसवतादि अलं- कार-१, संपूर्ण योग = १०८। कुछ विद्वान् उक्त दोहों के पाठांतर मानकर काव्य-निर्णय प्रयुक्त अलंकारों की संख्या १३२' भी प्रस्तुत करते हैं, जो मूलग्रंथ से विपरीत है। सुसमृद्ध संस्कृत-रीति-नयों से लेकर ब्रजभाषा के साहित्य तक अलंकारों की संख्या भेदाभेद छोड़कर विभिन्न रही है । एकता किसी ने स्वीकार नहीं की। पाo-t.(का०) (२०) (प्र०) वाक्य...। २. (का०)(प्र०) सतोपरि"। (सं० पु० प्र०) सेंट परि विक समिक स्तोपरि...!