पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अथ बाईसवाँ उल्लास अथ तुक निरन' बरनन जथा- भाषा - बरनन में प्रथम, 'तुक' चाहिऐ बिसेखि । उत्तम, मध्यम, अधुम सो, तीन भाँति की लेखि ।। सँमसरि कहुँ, कहुँ 'विषमसरि', कहूँ कष्टसरि साज' । उत्तम तुक के होत हैं, तीन भाँति के राज ॥ वि०-"दासजी ने इस उल्लास में 'तुकों' का-अंत्यानुप्रासों का कथन किया है । तुकों के प्रति श्रापका सबसे प्रथम कहना है कि 'भाषा-काव्य' में तुके विशेषतायुक्त और सुंदर होनी चाहिये । आपने ये तुके तीन प्रकार की, जैसे- उत्तम, मध्यम और अधम मानी है । उत्तम तुक के भेद भी आपने कहे हैं-सम- सरि, विषमसरि और कष्टसरि । इसके बाद आपने मध्यम तुक और उसके भेद- असंयोग-मिलित, स्वर-मिलित, दुर-मिलित और अधम तुक तथा उसके भेद जैसे-अमिल, सुमिल, आदि मत्त अमिल, अंत मत्त अमिल, बताते हुए अंत में 'वीप्सा', 'याम' और 'लाटि' तुकों का कथन कर इस उल्लास को समाप्त किया है। ____ संस्कृत-साहित्य मंथों में तुको का नाम-अंत्यानुप्रास विपर्यय रूप से उल्लेख किया गया है, यथा- "व्यंजन चेचथावस्थं सहायेन स्वरेण तु। भावयतेऽनययोज्यत्वादत्यानुमास एव तत् ॥" -सा०६० १०,६ अर्थात, प्रथम स्वर के साथ-ही यदि यथावस्थ व्यंजनों की श्रावृत्ति हो तो उसे "अंत्यानुप्रास" कहते हैं । यह नाम करण इसका पदांत में होने के कारण पड़ा है। वहीं इसके भेद -"सात्य', सात्य-विषमात्य', समांत्य', विषमात्य पा०-१.(संपु० प्र०.) मेद...। २. (का.)(३०) (प्र०.) को.... ३.(का०) (३०) (०) राज । ४.(का०) (३०) (प्र. ) साज ।