सम-विषमांत्य और भिन्न-तुकांत्य" मिलते हैं। दासजी कृत तुकों के भेद-उपभेद इनके अंतर्गत श्रा जाते हैं। यथा- १-जिस रचना के चारों चरणों के अंत्याक्षर समान हो। २-जिस रचना के सम से सम और विषम से विषम अंत्याक्षर हों। ३-जिस रचना के सम चरणों के अंत्याक्षर मिलते हों, पर विषम चरणों के नहीं। ४-जिस रचना के विषम चरणों के अंत्याक्षर एक सदृश हो, सम चरणों के नहीं। ५-जिस रचना के प्रथम चरण के अंत्याक्षर द्वितीय चरण के अनुसार और तृतीय के अंत्याक्षर चतुर्थ के अनुसार हों। ६-जिस रचना के सम-विषम पदों के अंत्याक्षर न मिलते हों,-प्रति पद का अंत्य विभन्न हो इत्यादि उक्त सर्वात्यादि तुक कही गयो हैं । साथ ही इस भिन्न तुकांत के-'प्रतिपद भिन्नांत्य, पूर्वार्द्ध तुकांत्य और उत्तरार्द्ध तुकांत्य" भेदों का भी उल्लेख मिलता है, जो भाषा साहित्य में नहीं है। उर्दू साहित्य में तुक का जिसे वहाँ 'काफिया' कहते हैं ब्रजभाषानुसार सुंदर प्रयोग किया जाता है। वहां काफिये के साथ 'रदीफ' का भी उल्लेख किया गया है। उदारण के लिये काफिया जैसे-यार, तैयार बेजार, दो-चार नाचार- इत्यादि औ रदीफ-"बैठे हैं। जैसे—यार बैठे हैं, तैयार बैठे हैं, दो- चार बैठे हैं, नाचार बैठे हैं-श्रादि । यह रदीफ काफिये के बाद रहता है और कभी बदलता नहीं, ज्यों का त्यों रहता है । ब्रजभाषा-साहित्य में भी इसकी बहुतायत है, जैसे—गहत है, चहत है, कहत है, रहत है"। इसमें गहत-चहत- इत्यादि काफिया और 'है' रदीफ है ।"
<Poem>
फेरि-फेरि हेरि हेरि करि-करि अभिलाख, लाख-लाख उपमा बिचारत हैं कैहने । विधि-ही मना जो घनेरे ग पाबें, तो- चॅहत याहि सतत निहारत-ही रहने । निमिष-निमिष 'दास' रोमत-निहाल होत, लूटे लेति मानों लाख-कोटॅन के लैहने । एरी बाल, तेरे भाल-चंदन के लेप मागे,
लोपि जात औरन जराइन के गैहने |पा०-१. (३०) मनाव...। २. (सं० पु० प्र०) लूटि...। ३. (सं० पु० प्र०) तेरी...! ४. (का०) (३०) (प्र०) और के...I (सं० १० प्र०) ( नि०) और के हजारन के...
- नि० (भि० दा०) पृ० ८, १६३ । . .