काव्य-निर्णय ६२१ अस्य तिलक इहाँ चारों-"कैहने, रैहने, लेहने" और "गैहने' समान है, तीन-तीन अच्छरन की एक सी तुक है, ताते यै 'सॅमसरि-बराबर की तुक भई।" दूजो विषमसरि तुक को उदाहरन जथा- कंज सँकोचि' गड़े रहें कीच' में, मीनन बोरि दए3 दह नीरन । 'दास' कहैं मृग हूँ न उदास के, बास दियौ है अन्य गंभीरन । मापुस में उपमा-उपमेह ह५ नेनन' निंदत है कबि धोरन। खंजन-हूँ कों उड़ाइ दियौ , हलके करि दोने अँनंग के तीन ॥ अस्य तिलक इहाँ तीन 'तुक'-"नीरन, धीरन औ तीन" तीन-तीन अच्छरन की अरु एक तुक-"गंभीरन" चारि अच्छर की है बे सों "विमसरि" तुक भई । वि०-"दासजी कृत यह छेद ब्रजभाषा-साहित्य में उच्चकोटि का माना जाता है । फलस्वरूप सभी नये-पुराने संग्रह-कर्ताओं ने अपने-अपने संग्रहों में जैसे-शृंगार-निर्णय (मिखारी दास) पृ०-१८, नखसिख-हजारा (हफीजुल्लाह- खां ) पृ०-१६७, सुंदरी-तिलक ( भारतेंदु ) पृ०-२६२, सुंदरी-सर्वस्व (पं० मनालाल) पृ०-२१, कविता-कौमुदी (रामनरेश त्रिपाठी) प्रथम भाग पृ०-- ४०४, शृंगार-लतिका-सौरभ (ददुवा साहिब-अयोध्या ) पृ०-१६७, आँख और कवि गण ( जवाहरलाल चतुर्वेदी) पृ०-६७', काव्य-कानन (राजा चक्रधर सिंह) पृ०-१७ इत्यादि अनेक प्रयों के नाम दिये और लिखे जा सकते हैं। वास्तव में यह छंद सुंदर है, ब्रजभाषा-साहित्य की शोभा है।" पा०-१. (सु. ति०) (सु० स० ) सकोचे.... २. (न० सि. १०) (म ति० ) (सु० स० ) कीचन्हें, मीन...। ३. (का० ) (३०) (प्र.) (सं०- पु० प्र०) (मु० ति० ) (न० सि० ह०) दयौ-दियौ...! ४. ( का० (३०) (प्र.) (०नि०)(मु० ति०)...मृगहू को उदास...। ५. (रा० पु० नी० सी० ) हैं...। ६. (का०)( )(प्र.) (०नि०) (50 ति०) नेन ए...। ७.(सु. ति०) (सं० स०) वए...। य., (३०) हलुको..... (का०) (३०)(प्र.)(सं० पुo. प्र०) दीन्हों...)
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