पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/६८३

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६४० काव्य-निर्णय पल्ला सिर पर श्रागे को (अधिक) खींच लो (निससे घाम न लगे), यह शिक्षा वन को जाती हुई ( कोमलांगी) जनक-पुत्री (सीताजी) को देखकर पथिक स्त्रियों ने आंखों में आँसू-भरकर दी।" पर इसका पर्दाफास दासजी मान्य तिलक के अनुसार “शिक्षिता च” ( सीख दी ) पद ने कर दिया है।" अथ अभवनमत्तजोग दोष लच्छन-उदाहरन- मुख्य-मुख्य' गँनत कहि, सो 'अभबनमतजोग। "प्रॉन, प्रॉन-पति-बिन रहे अबलों घिग ब्रज-लोग ॥" अस्य तिलक इहाँ प्रॉन को घिग कहिनों जोग हो, पै ऐसौ न कहि ब्रज के नागन को कहयौ ताते ये दोष है। बाक्यन को भले प्रकार सों भन्बह न हैवी-ई या दोष को लच्छिन है, जैसौ इहाँ । पुनः उदाहरन- बसँन-जोन्ह, मुकता-उद्ग, तिय-निसि को मुख-चंद । मिल्लीगँन, मंजरी-रब, उरज सरोरुह-बंद ।। अस्य तिलक इहाँ हूँ तिय को निसि करिके बरनॅन है, सो मुख्य-करिके समस्या में होनों चहिऐं। वि०-"हमारी अल्प मति से दासजी कृत इस तिलक रूप व्याख्या में कुछ कसर रह गयी है, वह यह कि उक्त उदाहरण निशा का-उज्ज्वल निशा का वर्णन है, इसलिये 'तिय मुख निसि को चंद" कहना उचित था, न कि-"तिय-निसि को मुख चंद" । अथवा इस "स्त्री-रूप रात्रि का मुख चंद" विविध मुक्ता-विभू- षित अलंकार उड़गन तारागण, बसन = चंद्रिका, मंजीर (विछुवा, वा घूघरू) का रख (अावाज) झिल्लीगणों का गान उरुज-सरोव्ह =कमल (युगल ) का बंद होना या रहना, सब उसी “सानिशा" का वर्णन है, पर वह क्रम से नहीं- अनुपम अन्वय युक्त नहीं, इसलिये उक्त दोष है।" अथ अकथित-कथनीय-दोष लच्छन-उदाहरन जथा- नहिँ अवस्य कहियो कहै, सो "अकथित-कथनीय"। "पोलॅम पाँइ-लग्यौ नहीं, मॉन छाँड़वो तीय ।।" पा०-१. (का०) (३०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) मुख्यहि मुख्य जो गनत कहि"१२. (का०) (०) (प्र०) (सं० पु० प्र०) रहयो । ३. (का०) (३०) (प्र०) के ।