पृष्ठ:काव्य-निर्णय.djvu/९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य-निर्णय १७ तुल्लजोगता बरनन 'दोहा' जथा- सँम सुभाइ हित-अहित पै 'तुल्लजोगता' चारु । सँम फल चाखे दाख सो, सींचन-काटॅन-हार ।। उत्प्रेच्छा अलंकार बरनन 'दोहा' जथा- जहाँ कछू कछ सौ लगै, सँममत-देखत उक्ति । 'उत्प्रेच्छा' तासों कहें, पोन मनों बिष-जुक्त ।। पुनः उदाहरन 'दोहा' जथा- चंद मनों तँम है चल्यो, अँनु तिय-मुख ससि-हेत । 'दास' जाँनियत दुरन कों, रंग लियो सजि सेत ॥ अपन्हुति बरनन 'दोहा' जथा- यै नहिं, यै कहियतु जहाँ, ततसँम बस्तु दुराइ । वहै 'अपन्हुति' अधर-छत, करत न पिय, हिम-याइ । सुमरन, भ्रम औ संदेह कथन 'दोहा' जथा- लच्छंन नाम-प्रकास हैं, 'सुमरन, भ्रम, संदेह । जदपि भिन्न हूँ हैं तदपि उत्प्रेच्छा के गेह ॥ उदाहरन 'सोरठा' जथा-- सँमझत नंद-किसोर: चंद निरखि तो बदँन छबि । लखि भ्रम रहत चकोर, चंद किधों यै वदन है॥ वि०-"दासजी ने इस छंद के पूर्वाद्ध में 'सुमरन (स्मरण ) तथा उत्तरार्ध में 'भ्रम' तथा 'संदेह' अलंकार का वर्णन किया है- उदाहरण दिया है।" व्यतिरेक अलंकार बरनन 'दोहा' जथा- 'बितरेक' जो गुन-दोष गॅनि, समता तजै इकंक । क्यों सम मुख निकलंक ये, बो सकलंक मयंक।। वि०-"हिंदी साहित्य संमेलन की प्रति में ये दोहे पर्व के स्थान पर और पर के स्थान पूर्ववाला दोहा है।" पा०-१. (प्र०)(.) को1