२७ काव्य-निर्णय परयायोक्ति बरनन 'दोहा' जथा- 'परजा-उक्ति' जहाँ नई, रचनों सों कछु बात । बंदों ब्याल-बिछावनों, जा' तापस-द्विज-लात ।। आच्छेप बरनन 'दोहा' जथा- कहै कहन की विधि मुकरि, करि 'आच्छेप' सुबेस । बिरह-बरी कौ में नहीं, कहति जु लाल संदेस ॥ विरुद्ध-अविरुद्ध बरनन 'दोहा' जथा है 'बिरुद्ध-अबिरुद्ध' में, बुधि-बल सजे बिरुद्ध । कुटिल काँन्ह क्यों बस कियौ, लली बाँन तुब सुद्ध ।। वि०-"यहाँ तीन प्रतियों-(प्र.) (प्र०-२ ) (३०) में केवल 'विरुद्धा- लंकार-बरनन' लिखा हुश्रा ही मिलता है। साथ ही कई प्रतियों में--विरुद्ध, विभावना, विशेषोक्ति, उल्लास, तद्गुण, मीलित, और उन्मीलित-अलंकारों के पृथक् शीर्षक न देकर, विरुद्धालंकार के अंतर्गत ही मानकर लिखे गये हैं ।" बिभावनालंकार बरनन 'दोहा' जथा- बिन-कारन कारज प्रघट, 'बिभावना' बिस्तारु। चितबत-ही घाइल करें, बिन-अंजन हग चारु ॥ विसेसोक्ति अलंकार बरनन 'दोहा' जथा- 'बिसेसोक्ति' कारज नहीं, कारन को अधिकाइ । महा-महाजोधा थके, टरयौ न अंगद-पाँइ ॥ उल्लास-अलंकार बरनन 'दोहा' जथा गुन-ौगँन कछु और तें और धरें 'उल्लास'। सत पर-दुख ते दुख लहें, पर सुख ते सुख 'दास' । तदगुन-अलंकार बरनन 'दोहा' जथा- अलंकार 'तद[न' कहों, संगत-गुन गहि लेत । होत लाल तिय के अघर, मुक्त हँसत फिरि सेत ।। पा०-१. (प्र०) बासु हदै द्विज-लात । (३) पायौ हिय द्विज-लात । २. (प्र.) (40) कहती लाल सैंदेस। (भा० जी० ) कहत लाल संदेम । ३ (भा० जी० ) तुम्ह... (सं० प्र०) तव । ४ (प्र.) (सं० प्र०) चितवन-ही"।
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