पृष्ठ:काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध.pdf/१०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
( ७० )

आनन्दवर्द्धन ने श्रव्य काव्यों में भी रसों का उपयोग मान लिया था; परन्तु आत्मा के रूप में ध्वनि की ही प्रधानता इस विचार से रक्खी कि अलङ्कार मत में रस जैसी नाट्य वस्तु सब से अधिक प्रमुख न हो जाय। यह सिद्धान्तों की लड़ाई थी। आनन्दवर्द्धन ने रस की दृष्टि से विवेचना करते हुए महाभारत को शान्त रस प्रधान और रामायण को करुण रस का प्रबन्ध माना। किन्तु मुक्तकों में रस की निष्पत्ति कठिन देख कर उन्हों ने यह भी कहा कि श्रव्य काव्य के अन्तर्गत मुक्तक काव्यों में रस की निबन्धना अधिक प्रयत्न करने पर ही कदाचित् सम्भव हो सकेगी।

प्रबन्धे मुक्तके वापि रसादीन् बद्धुमिच्छता। यमः कार्यः सुमतिना परिहारे विरोधिनां। अन्यथा त्वस्य रसमयश्लोक एकोपि सन्यङ न सम्पद्यते।

आनन्दवर्द्धन भी काश्मीर के थे और उन्हों ने वहाँ के आगमानुयायी आनन्द सिद्धान्त के रस को तार्किक अलङ्कार मत से सम्बद्ध किया। किन्तु माहेश्वराचार्य अभिनवगुप्त ने इन्हीं की व्याख्या करते हुए अभेदमय आनन्द पथ वाले शैवाद्वैतवाद के अनुसार साहित्य में रस की व्याख्या की। नाटकों के स्वरूप तो उन के सिद्धान्त और दार्शनिक पक्ष के अनुकूल ही थे। अभिनव गुप्त ने अपनी लोचन नाम की टीका में स्पष्ट ही लिखा है―

तदुत्तीर्णत्त्वेतु सर्वम् परमेश्वराद्वयम् ब्रह्मेत्यन्मच्छास्त्रानुसरणेन विदितम्, तन्त्रालोक ग्रन्थे विचारयेत्यास्ताम्।