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बंधनों को तोड़ने का भी प्रयोग आरंभ हुआ । उन के लिए परम-तत्व की प्राप्ति सांसारिक परंपरा को छोड़ने से ही हो सकती थी । भागवत का वह प्रसिद्ध श्लोक इस के लिए प्रकाश स्तम्भ बना―

आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्याम्
वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्
या दुस्त्यजं स्वजनमार्प्यपथं च हित्वा
भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विभृग्याम्।

यह आर्यपथ छोड़ने की भावना स्पष्ट ही श्रुतिविरोध में थी। आनन्द की योजना करने जा कर विवेकवाद के लिए दूसरा न तो उपाय था और न दार्शनिक समर्थन ही था। उन्हों ने स्वीकार किया कि संसार में प्रचलित आर्य सिद्धांत सामान्य लोक आनन्द तत्व से परे वह परम वस्तु है, जिस के लिए गोलोक में लास्य लीला की योजना की गयी। किन्तु समग्र विश्व के साथ तादात्म्य वाली समरसता और आगमों के स्पंद शास्त्र के ताण्डवपूर्ण विश्व-नृत्य का पूर्ण भाव उस में न था। इन लोगों के द्वारा जब रसों की दार्शनिक व्याख्या हुई, तो उसे प्रेम मूलक रहस्य में ही परिणत किया गया और यह रहस्य गोप्य भी माना गया। 'उज्जवल नीलमणि' की टीका में एक जगह स्पष्ट कहा गया है―

अयमुज्ज्वल नीलमणिरेत्तन्मूल्यमजानद्‌भ्योऽनादर शंकया गोप्य एवेति।

भारतेन्दुजी ने अपनी चन्द्रावली नाटिका में इस का संकेत किया है। इस रागात्मिका भक्ति के विकास में हास्य, करुण,