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साहित्य-सृष्टि के द्वारा, मानवीय वासनाओं को संशोधित करने वाला पश्चिम का सिद्धान्त व्यापारों में चरित्र निर्माण का पक्षपाती है। यदि मनुष्य ने कुछ भी अपने को कला के द्वारा सम्हाल पाया, तो साहित्य ने संशोधन का काम कर लिया। दया और सहानुभूति उत्पन्न कर देना ही उस का ध्येय रहा और है भी। वर्तमान साहित्यिक प्रेरणा―जिस में व्यक्ति वैचित्र्य और यथार्थवाद मुख्य हैं―मूल में संशोधनात्मक ही हैं। कहीं व्यक्ति से सहानुभूति उत्पन्न कर के समाज का संशोधन है; और कहीं समाज की दृष्टि से व्यक्ति का! किन्तु दया और सहानुभूति उत्पन्न कर के भी वह दुःख को अधिक प्रतिष्ठित करता है, निराशा को अधिक आश्रय देता है। भारतीय रसवाद में मिलन, अभेद सुख की सृष्टि मुख्य है। रस में लोकमंगल की कल्पना, प्रच्छन्न रूप से अन्तर्निहित है। सामाजिक स्थूल रूप से नहींं, किन्तु दार्शनिक सूक्ष्मता के आधार पर। वासना से ही क्रिया सम्पन्न होती है, और क्रिया के संकलन से व्यक्ति का चरित्र बनता है। चरित्र में महत्ता का आरोप हो जाने पर, व्यक्तिवाद का वैचित्र्य उन महती लीलाओं से विद्रोह करता है। यह है पश्चिम की कला का गुणनफल! रसवाद में वासनात्मकतया स्थित मनोवृत्तियाँ, जिन के द्वारा चरित्र की सृष्टि होती है, साधारणीकरण के द्वारा आनन्दमय बना दी जाती हैं। इसलिए वह वासना का संशोधन न कर के उन का साधारणीकरण करता है। इस