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ही रंगपीठ पर होते थे। रंगपूजा रंगशीर्ष पर जवनिका के भीतर होती थी। सरगुजा के गुहा-मंदिर की नाट्यशाला दो हज़ार वर्ष की मानी जाती है। कहा जाता है कि भोज ने भी कोई ऐसी रंगशाला बनवाई थी जिस में पत्थरों पर संपूर्ण शाकुंतल नाटक उत्कीर्ण था। आधुनिक रामलीला के अभिनयों में प्रचलित विमान यह प्रमाणित करते हैं कि भारत में दोनों तरह के रंगमंच होते थे। एक तो वे जिन के बड़े-बड़े नाट्यमंदिर बने थे और दूसरे चलते हुए रंगमंच, जो काठ के विमानों से बनाये जाते थे और चतुष्पथ तथा अन्य प्रशस्त खुले स्थानों में आवश्यकतानुसार घुमा-फिरा कर अभिनयोपयोगी कर लिये जाते थे।

नाट्यमंदिरों के भीतर स्त्रियों और पुरुषों के सुंदर चित्र भीत पर लिखे जाते थे। और उन में स्थान-स्थान पर वातायनों का भी समावेश रहता था। नाट्य-मंडप में कक्षाएँ बनाई जाती थीं जिन में अभिनय के दर्शनीय गृह, नगर, उद्यान, ग्राम, जंगल, पर्वत और समुद्रों का दृश्य बनाया जाता था। आधुनिक काल के रंगमंचों से कुछ भिन्न उन की योजना अवश्य होती थी। किंतु—

कक्ष्या विभागे ज्ञेयानि गृहाणि नगराणि च
उद्यानारामसंहितो देशो ग्रामोऽटवी तथा।

(ना॰ शा॰ ।१४ अ॰)

इत्यादि से यह मालूम होता है कि दृश्यों का विभाग कर के नाट्य-मंडप के भीतर उन की इस तरह से योजना की जाती थी