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आत्मा की है इसलिए स्वभावतः अवस्था के साथ साथ आत्मा संबंधी विभिन्न युगों की धारणाओं का परिचय प्रसादजी देते गए हैं। आत्मा का विशुद्ध अद्वय स्वरूप आनंदमय है और उस अद्वयता में संपूर्ण प्रकृति से संनिहित है यह प्रसादजी की सुदृढ़ धारणा और उपपत्ति है। आदि वैदिक काल में इस आत्मवाद के प्रतीक इन्द्र थे और यही धारा शैव और शाक्त आगमों में आगे चल कर बही। यही विशुद्ध आत्मर्दशन था जिनमें प्रकृति और पुरुष की द्वयता विलीन हो गई है। शैव और शाक्त आगमों में जो अंतर है उसे भी प्रसादजी ने प्रकट किया है―'कुछ लोग आत्मा को प्रधानता देकर जगत् को, 'इदम्' को 'अहम्' में पर्यवसित करने के समर्थक थे, वे शैवागमवादी कहलाए। जो लोग आत्मा की अद्वयता को शक्तितरंग जगत् में लीन होने की साधना मानते थे ये शाक्तागमवादी हुए।' आत्मा का यही विशुद्ध अद्भय प्रवाह परवर्ती रहस्यात्मक काव्य में प्रसरित हुआ इसीलिए प्रसादजी रहस्यात्मक काव्यधारा को ही आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति की मुख्य धारा मानते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह शक्ति और आनंदप्रधान धारा थी जिसमें आदर्शवाद, यथार्थवाद, दुःखवाद आदि बौद्धिक, विवेकात्मक आदि, प्रसादजी के मत से अनात्मवादों का, स्वीकार नहीं था। दुःख या करुणा के लिए यहाँ भी स्थान था, किन्तु यह वेदना आनन्द की सहायक और साधक बन कर ही रह सकी।

इससे भिन्न दूसरी धाराओं के कई विभाग प्रसादजी के किए