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हैं, इसलिए अभिनीत वस्तु में न तो व्यक्तिवैचित्र्य (अद्भुत चरित्र सृष्टि) के लिए अधिक स्थान मान गया है न दुःखातिरेक के लिए। इसका आशय यह नहीं है कि नाटक में दुःख के दृश्यों के लिए स्थान ही नहीं है अथवा आनन्द के, रस में, नाम पर श्रेयहीन प्रेय का ही प्राधान्य है। इसका आशय केवल इतना है कि नाटक में आत्मा की संकल्पात्मक, सांस्कृतिक प्रेरणाओं की प्रधानता होती है क्योंकि वे मुख्यतः जनसमाज के मनोरंजन के साधन होते हैं। आए दिन सिनेमा की दृश्यावली में भी हम इसी स्वाभाविक प्रवृत्ति के पाते हैं, यद्यपि उनमें सर्वत्र श्रेय सुरुचि का ध्यान नहीं रक्खा जाता।

प्रसादजी की एक अन्य उपपत्ति यह भी है कि दार्शनिक रहस्यवाद का नाटकीय रस से घनिष्ट संबंध है। जिस प्रकार रहस्यवाद में आनन्द के पक्ष की प्रधानता है उसी प्रकार नाटक में भी। जिस प्रकार भक्ति आदि विवेक और उपासना-मूलक दर्शन के अद्वैत रहस्य में स्थान नहीं है, उसी प्रकार भक्ति की रस में गणना नहीं हो सकती। यह स्पष्ट ही इसलिए कि भक्ति-काव्य के पात्रों और व्यवहारों का नाटक द्वारा रस-रूप में साधारणीकरण नहीं हो सकता। वे पात्र तो उपासना के हैं, उनका साधारणीकरण हो कैसे? इसलिए वे साहित्यिक अर्थ में नीरस हैं। साहित्यिक रस तो तभी तक है जब तक तादात्म्य की पूर्ण सुविधा है।

इसी तादात्म्य या साधारणीकरण के प्रसंग को लेकर