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इन्द्रियाँ प्रत्यक्ष हैं। उन्हीं के द्वारा संवेदन होता है, उनमें तन्मात्रा के क्रम से वाह्य पदार्थों के भी पाँच विभाग माने गये हैं। आकाशाद वायु वाले सिद्धान्त के अनुसार आकाश का गुण शब्द ही इधर ज्ञान के आरम्भ में है। जो कुछ हम अनुभव करते हैं वाणी उसका रूप है। यह वाणी का विकास वर्णों में पूर्ण होता है और वर्णों के लिए आभ्यन्तर और बाह्य दो प्रयत्न माने गये हैं। आभ्यन्तर प्रयत्न उसे कहते हैं जो वर्णों की उत्पत्ति से प्राग्भावी वायु व्यापार है। और वर्णोंत्पति कालिक व्यापार को वाह्य प्रयत्न कहा जाता है। यह वाङ्मय अभिव्यक्ति, मनन की प्राणमयी क्रिया, आत्मानुभूति की प्रकट होने की चेष्टा है। इसीलिए उपनिषदों में कहा गया है―ये एकोऽत्रर्णों बहुधा शक्तियोगात वर्णाननेक्ताभिहितार्थों दधाति विचैति चान्ते विश्यम्पादौ स देवः स नो बुढ्या शुभया संयुनक्तु। भावों को व्यक्त करने का मौलिक साधन वाणी है। इसलिए वही प्रकृत है।

आर्य-साहित्य में उन वर्णों के संगठन के तीन रूप माने गये हैं— ऋक्=पद्यात्मक, यजु=गद्यात्मक और साम=संगीतात्मक। वैदिकाश्च द्विविधाः प्रगीता अप्रगीताश्वं। तत्र प्रगीताः सामानि, अगरीताश्च विविधाः छन्दोवद्धस्तद्विलक्षणाश्च। तत्र प्रथमाऋचः द्वितीया यजूषि। (सर्वदर्शन संग्रह) यही आर्य-वाणी की आरम्भिक उच्चारण शैली है, जो दूसरों के आस्वाद के लिए श्रब्य कही जाती है।