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आधार पर नये-नये तर्कों की उद्भावना की। फिर तो आत्मवाद के अनुयायियों में भी अग्निहोत्र आदि कर्मकाण्डों की आत्मपरक व्याख्याएँ होने लगीं। उन्हों ने स्वाध्यायमण्डल स्थापित किये। भारतवर्ष का राजनैतिक विभाजन भी वैदिक काल के बाद इन्हीं दो तरह के दार्शनिक धर्मों के आधार पर हुआ है।

वृष्णि सङ्घ व्रज में और मगध के व्रात्य और अयाज्ञिक आर्य बुद्धिवाद के आधार पर नये-नये दर्शनों की स्थापना करने लगे। इन्हीं लोगों के उत्तराधिकारी वे तीर्थङ्कर लोग थे जिन्हों ने ईसा से हजारों वर्ष पहले मगध में बौद्धिक विवेचना के आधार पर दुःखवाद के दर्शन की प्रतिष्ठा की। सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर विवेक के तर्क ने जिस बुद्धिवाद का विकास किया वह दार्शनिकों की उस विचारधारा को अभिव्यक्त कर सका जिस में संसार दुःखमय माना गया और दुःख से छूटना ही परम पुरुषार्थ समझा गया। दुःखनिवृत्ति दुःखवाद का ही परिणाम है। फिर तो विवेक की मात्रा यहाँ तक बढ़ी कि वे बुद्धिवाद अपरिग्रही, नग्न दिगम्बर, पानी गरम कर के पीने वाले और मुँह पर कपड़ा बाँध कर चलनेवाले हुए। इन लोगों के आचरण विलक्षण और भिन्न-भिन्न थे। वैदिक काल के वाद इन व्रात्यों के सङ्घ किस-किस तरह का प्रचार करते घूमते थे, उन सब का उल्लेख तो नहीं मिलता; किन्तु बुद्ध के जिन प्रतिद्वन्द्वी मस्करी गोशाल, अजित केश-कम्बली, नाथपुत्र, संजय बेलट्ठिपुत्र, पूरन कस्सप आदि तीर्थङ्करों का नाम मिलता है, वे प्रायः दुःखातिरेक-