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ही उन्हें परितोष हुआ। विवेक और विज्ञान से भी आनन्द को अधिक महत्त्व देनेवाले भारतीय ऋषि अपने सिद्धान्त का परम्परा में प्रचार करते ही रहे।

तस्माद्वा एतस्माद्विज्ञानमयात्। अन्योऽन्तर आत्मानन्दमयः। तेनैष पूर्णः। स वा एष पुरुषविध एव। तस्य पुरुषबिधताम्। अन्वयं पुरुषविधः। तस्य प्रियमेव शिरः। मोदो दक्षिणः पक्षः। प्रमोद उत्तरः पक्षः। आनन्द आत्मा। (तैत्ति॰ २/५ )

उपनिषद् में आनन्द की प्रतिष्ठा के साथ प्रेम और प्रमोद की भी कल्पना हो गयी थी, जो आनन्दसिद्धान्त के लिए आवश्यक है। इस तरह जहाँ एक और भारतीय आर्य व्रात्यों में तर्क के आधार पर विकल्पात्मक बुद्धिवाद का प्रचार हो रहा था वहाँ प्रधान वैदिक धारा के अनुयायी आर्यों में आनन्द का सिद्धान्त भी प्रचारित हो रहा था। वे कहते थे―

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।

(मुण्डक॰)

नैषा तर्केणमतिरापनेया। (कठ॰)

आनन्दमय आत्मा की उपलब्धि विकल्पात्मक विचारों और तर्कों से नहीं हो सकती।

इन लोगों ने अपने विचारों के अनुयायी राष्ट्रों में परिषदें स्थापित की थीं और व्रात्य संघों के सदृश ही इन के भी स्वाध्यायमण्डल थे, जो व्रात्य संघों से पीछे के नहीं अपितु पहले के थे। हाँ, इन