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अद्वैतवाद के इस नवीन विकास में प्रेमभक्ति की योजना तैत्तिरीय आदि श्रुतियों के ही आधार पर हुई थी। फिर तो सौन्दर्य भावना भी स्फुट हो चली―

श्रुत्वापि शुद्वचैतन्यमात्मानमतिसुन्दरम्

(अष्टावक्रगीता ४ । ३)

इन आगम के आनुयायी सिद्धों ने प्राचीन आनन्द मार्ग को अद्वैत की प्रतिष्ठा के साथ अपनी साधना पद्धति में प्रचलित रक्खा और इसे वे रहस्य सम्प्रदाय कहते थे। शिवसूत्रविमर्शिनी की प्रस्तावना में क्षेमराज ने लिखा हैं―

द्वैतदर्शनाधिवासितप्राये जीवलोके रहस्यसम्प्रदायो मा विच्छेदि

रहस्य सम्प्रदाय जिस में लुप्त न हो इसलिए शिवसूत्रों की महादेवगिरि से प्रतिलिपि की गयी। द्वैतदर्शनों की प्रचुरता थी। रहस्य सम्प्रदाय अद्वैतवादी थी। इन लोगों ने पाशुपत योग की प्राचीन साधना पद्धति के साथ-साथ आनन्द की योजना करने के लिए काम-उपासना प्रणाली भी दृष्टान्त के रूप में स्वीकृत की। उसके लिए भी श्रुति का आधार लिया गया।

तद्यथा प्रियया स्त्रिया संपरिष्वक्तो न बाह्ये किञ्चन वेद नान्तरम् (वृहदारण्यक)। उपमन्त्रयते स हिंकारो ज्ञपयते स प्रस्तावः स्त्रिया सह शेते।

आत्मरतिरात्मक्रीड आत्ममिथुन आत्मानन्दः स स्वाराड् भवति।

इन छान्दोग्य आदि श्रुतियों के प्रकाश में यह रति-प्रीति―