पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/११०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्यदपण ___ अभिप्राय यह कि जिसके विषय में वक्तव्य हो वह उद्देश्य और जो वक्तव्य हो वह विधेय है। जैसे- 'हे देव ! तुम्ही माता हो, पिता हो, सखा हो, धन हो और हे देव ! तुम्हीं मेरे सब कुछ हो । यहाँ 'देव' जो पहले से सिद्ध अर्थात् वर्तमान है, उसमें मातृत्व, पितृत्व आदि 'अपूर्व' अर्थात् अवर्तमान का कथन करने में 'देव' उद्देश्य, 'माता हो' आदि विधेय हैं। पूर्णार्थ प्रकाशक पदसमूह को वाक्य कहते हैं। योग्यता, श्राकांक्षा और श्रासत्ति से युक्त पदसमूह को वाक्य कहते हैं। उपभोग भेद से अनुकूल-पद-घटित वाक्य के तीन भेद होते है- (१) प्रभुसम्मित, ( २ ) सुहृत्सम्मित और ( ३ ) कान्तासम्मित । (१) वेदादि वाक्य शब्द-प्रधान होने से प्रभुसम्मित है। (२) पुराणादि अर्थ-प्रधान होने से सुहृत्सम्मित हैं। (३) काव्य शब्दार्थोभय गुण से सम्पन्न तथा रसास्वाद से परिपूर्ण होने के कारण कान्तासम्मित है । कान्ता के समान काव्य के कोमल वचनों से कृत्याकृत्य का उपदेश और रसानुभव से अपूर्व आनन्द को प्राप्ति होती है। इससे काव्य इन दोनों से विलक्षण है। १ योग्यता पदार्थो के परस्पर अन्वय में सम्बन्ध स्थापित करने में किसी प्रकार की अनुपपत्ति-अड़चन का न होना योग्यता है। पीकर ठंडा पानी मैंने अपनी प्यास बुझायो । पर पीकर मृगतृष्णा उसने अपनी तृषा मिटायी ।।-राम पानी से प्यास बुझती है । इससे पहली पंक्ति में योग्यता है । किन्तु 'मृगतृष्णा से प्यास नहीं बुझती । इससे दूसरी पंक्ति में योग्यता नहीं है। २ आकांक्षा एक-दो साकांक्ष पदों के रहते हुए भी अर्थ का अपूर्ण रहना, अर्थात् वाक्यार्थ पूरा करने के लिए अन्याय पदों की अपेक्षा-जिज्ञासा का रहना, यद समूह की आकांक्षा कहलाता है। 'राम ने एक पुस्तक' इतना कहने हो से अर्थ पूरा नहीं होता और 'श्याम कोदो' इस प्रकार के पद अपेक्षित रहते हैं। जब दोनों मिला दिये जाते हैं तब वाक्यार्थ पूरा हो जाता है और आकांक्षा मिट जाती है।