पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१२१

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२६ उपादानलक्षण और लक्षणालक्षणा सूझ है। जैसे शब्द का अन्वय नही होता वैसे वस्तु का भी अन्वय असंभव है। केवल शब्द के द्वारा उपस्थापित अर्थ का ही अन्वय माना जाता है । श्रन्वयकाल में यह अर्थ साक्षात् वस्तु के रूप में कभी नही उपस्थित होता; बल्कि बुद्धिगत वस्तुचित्र ही के रूप में उपस्थित होता है। लक्षणा का विषय शास्त्रगण्य है। उसके लिए किसी अव्युत्पन्न के द्वारा तकित या कल्पित व्यवस्था काम नहीं दे सकती है । देखिये- बैठी नाव निहार लक्षणा व्यञ्जना, गंगा में गृह वाक्य सहज वाचक बना । इन पंक्तियों में गुप्तजी ने सहज वाचकता का ही चमत्कार दिखाया है ; पर पंगा में गृह' प्राचीन 'गंगायां घोषः' उदाहरण का रूपान्तर है और इसमें लक्षणा है। क्योंकि गंगा में घर नहीं हो सकता। अबाध है । दर्पणकार ने अर्थ ठोक बैठने के लिए 'गंगा' का अर्थ तौर किया है। अर्थात् 'तट' पर घर है । इस अर्थ में ही लक्षणलक्षणा है। अर्थान्तर से अर्थात् 'गंगातट' पर यह अर्थ करने से इसमें उपादानलक्षणा भी होगी। 'ग्गायां घोषः' उदाहरण में जिसने 'लक्षणलक्षणा' होने की बात को बन्दरमूठ पकड़ रखी है उसके सम्बन्ध में जो शास्त्रसम्मत सिद्धान्त है, उसका आशय यह है- ____ "गंगा पद से लक्षित पदार्थ यदि केवल तीर रूप माना जाय तो लक्षण-लक्षणा होगी और यदि गंगा-तौर माना जाय तो उपादानलक्षणा होगी। अब इससे अधिक स्पष्ट इसका क्या निर्णय हो सकता है कि मुख्याथं का वाक्य में अन्वय होने पर उपादान लक्षण होती है और न होने पर लक्षण-लक्षणा । इसी प्रकार 'लाठियों को पैठावो' और 'मचान बोलते है। श्रादि उदाहरणों में 'लाठी लेनेवालों' और 'मचान पर बैठनेवालों' आदि के लक्ष्यार्थ में उपादानलक्षणा ही होती है।" ___ मचान बोलते है, इस उदाहरण से स्पष्ट है कि वस्तु का अन्वय नहीं होता। यदि होता तो मचान भी साथ-साथ बोलने में योग देते। पर ऐसा नहीं होता। . ऐसे हो 'घरवाले' आदि उदाहरणों को भी समझना चाहिये। १. शक्यार्थसम्बन्धो यदि तीरत्वेन रूपेण गृहीतस्तदा तीरत्वेन तीरबोधः, यदि तु' गङ्गातीरत्वेन रूपेण गृहीतस्तदा तेनैव रूपेण स्मरणम् ।। सिद्धान्तमुक्तावली (शब्दखण्ड) तेनैव रूपेणेति । नच गङ्गायामित्यादौ गङ्गातीरत्वेनवोघे जहत्त्वार्थत्वहानिरिति वाच्यम् । तीरत्वेन लक्षणायामेव जसत्स्वार्थस्य सर्वसम्मतत्वात् । गङ्गातीरत्वेन भाने तु अजहत्स्वार्थव लक्षणेति । एवं पूर्वोत्तस्थले यष्टीः प्रवेशय मञ्चाः क्रोशन्तीत्यादावपि यष्टिधरत्वमञ्च थत्वमञ्चस्थ- त्यादिना बोधेऽजहत्वाथैव लक्षणोतिधेयम् । (दिनवरी शब्दखण्ड)