पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१३६

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काव्यदर्पण कि मैं ही देवल सुकुमार नहीं हूँ, श्राप भी सुकुमार हैं। आप बन के योग्य है तो मै भी बन के योग हूँ। जैसे राजा की लड़की मैं वैसे राजा के लड़के श्राप । तब यह कैसे संभव है कि जिस येोग्य आप है उस योग्य मैं नहीं और जिस योग्य मैं हूँ, उस योग्य आप नहीं । इससे मेरा वन जाना उचित है । (१०) चेष्टावैशिष्ट्योत्पन्नवाच्यसंभवा जहाँ चेष्टा-अर्थात् इंगित-हाव-भावादिद्वारा व्यंग्यार्थ का बोध होता है, वहाँ उपयुक्त आर्थी व्यंजना होती है। कंटक काढत लाल के चञ्चल चाह निबाहि। चरन खैचि लीनो तिया हंसि झूठे करि आहि ॥ प्राचीन । यहाँ झूठ-मूठ की आह भरके और हँस करके चरन खींच लेने से नायिका का किलकिचित हाव-व्यग्य है । इससे यहां चेष्टा द्वारा वाच्यसंभवा प्रार्थी व्यंजना है। यहाँ सखी के हँसने को चेष्टा से राम के प्रति सीता के हृदय में वर्तमान दर्शनोत्सुकता व्यंग्य है। (११) अनेकवैशिष्ट्योत्पन्न व्यंग्य कहीं-कहीं एक ही उदाहरण में अनेक वैशिष्टयों से भी एक व्यंग्य प्रतीत होता है। जैसे, काम कुपित मधु मास अरु, श्रमहारी बह जाय । कुंज मजु बन पति अनत करौं सखी कह काय ॥ अनुवाद इसमें मधुमास कथन से कालवैशिष्ट्य, कुञ्ज मंजु बम से देशवैशिष्ट्य, बियोग के प्रकरण से प्रस्ताव वैशिष्ट्य, इनसे 'यहाँ तू प्रच्छन्न रूप से कामुक को भेज' यह व्यंग्य प्रकट है । इन पृथक्-पृथक् विशेषताओं से पूर्वोक्त वर्णन के अनुसार भी व्यंग्य सूचित होता है।