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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१३७

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तीसरा प्रकाश पहली छाया रस-परिचय शास्त्रों ने रस को बड़ा महत्त्व दिया है। काव्य के तो ये प्राण है । रसास्वादन हो काव्याध्ययन का परम ध्येय है । वाग्वैदग्ध्य की-वाक् चातुरी की-अभिव्यंजना- कौशल को-प्रधानता रहने पर भी रस ही काव्य का जीवन है ।' "रस अलौकिक चमत्कारकारी उस अानन्द-विशेष का बोधक है । जिसकी अनुभूति सहृदय के हृदय को द्रुत, मन को तन्मय, हृदय-व्यापारों को एकतान, नेत्रों को जलाप्लुत, शरीर को पुलकित और वचन-रचना को गद्गद रखने की क्षमता रखती है। यही आनन्द काब्य का उपादेय है और इसी को जागर्ति वाङ्मय के अन्य प्रकारों से विलक्षण काव्य नामक पदार्थ की प्राण-प्रतिष्ठा करती है।"२ साहित्य के रसक्षेत्र में अपने-पराये का भेद-भाव नहीं रहता। वहाँ जो भाव होता है, वह सर्वसाधारण तथा समस्त-सम्बन्धातीत होता है । ऐसे अपरिमित भाव के उन्मेष से सभी सहृदयों को एक हो भाव द्वारा रस-वस्तु की उपलब्धि होती है। "यह रस मानो प्रस्फुटित होता है। यह मानो हमारे अन्तर में प्रवेश कर जाता है; यह मानो हमें सब ओर से अपने प्रेमालिङ्गन में श्राबद्ध कर लेता है। उस समय मानो और सब विचार, वितर्क, उद्देश्य प्रादि तिरोहित हो जाते है।"3 अभिप्राय यह कि जब रस का आस्वाद मिलने लगता है तव विषयान्तर का अनुभव पास तक नहीं फटकने पाता। मानो उस समय एक प्रकार से मुक्ति-स्वरूप ब्रह्मानन्द को उपलब्धि होती है। ब्रह्मास्वाद-ब्रह्मानन्द के समान रसास्वाद होता है न कि ब्रह्मानन्द ही होता है। क्योंकि ब्रह्मास्वाद निर्विकल्पक होता है और रसास्वाद सविकल्पक । यह रस अलौकिक चमत्कारक होता है। चमत्कार ही रस का प्राण है । चमत्कार का अर्थ है चित्त का विस्तार या विस्फार अर्थात् अलौकिक अर्थ के आकलन से ज्ञानोत्पादन में उसका विस्तार हो जाता है। इसी से कहा है कि रस का सार चमत्कार ही है।'४ १ वाग्वैदग्ध्वप्रधानेऽपि रम एवात्र जीपितम्। २ 'रसायन' की भूमि से। ३ 'काव्यप्रकाश' के लक्षण का भावार्थ । ४ रसे सारः चमत्कारः।