पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४८ काव्यदर्पण अस्थायी भाव हैं। ये टिकाऊ नहीं होते-रस के परिणत होने तक नहीं ठहरते ; उगते डूबते रहते हैं। इनके क्षणिक उदक मुख्य रस का उसी प्रकार उत्कर्ष- साधन करते हैं, जिस प्रकार नायक-नायिका के आनन्द-मिलन में हमजोली सहेलियों के चुटीले विनोद स्थायी भाव का परिपक्व रूप ही रस है । 'रस्यते इति रसः'। जो रसित- आस्वादित हो उसे रस कहते है। फलतः रस आस्वाद-स्वरूप है। आस्वाद एक.. प्रकार के अलौकिक अानन्द से अभिन्न है। वह अभिनय के दर्शन से तथा कविता के अथपरिशीलन से आत्मा में सहसा उबुद्ध हो जाता है। तीसरी छाया विभाव-आलंबन जिन वर्णनीयों के द्वारा रति आदि स्थायी भाव जागरूक होकर रसरूप धारण करते हैं उन्हें विभाव कहते हैं। संक्षेप में भाव के जो कारण होते हैं, विभाव कहे जाते है। ____ शुक्लजी के शब्दों में-भाव से अभिप्राय संवेदना के स्वरूप को व्यंजना से है। विभाव से अभिप्राय उन वस्तुओं या विषयों के वर्णन से है, जिनके प्रति किसी प्रकार का भाव या संवेदना होती है ।" ज्ये विभाव वचन और अभिनय के आश्रित अनेक अर्थों का विभावन अर्थात् विशेषतया ज्ञान कराते हैं,आस्वादन के योग्य बनाते है, इसीसे इन्हें विभाव कहते हैं। विभाव दो प्रकार के होते है-१. श्रालंबन विभाव और २. उद्दीपन विभाव । प्रत्येक रस के आलंबन और उद्दीपन विभाव भिन्न-भिन्न होते हैं। रसानुभूति में ये कारण होते हैं। आलम्बन विभाव -जिनके सहारे रस की निष्पत्ति होती है-अर्थात् जिनपर आलंबित होकर भाव ( रति आदि मनोविकार) उत्पन्न होते हैं, वे आलम्बन विभाव हैं। जैसे, नायिका और नायक। नायिका रूप-गुणवतो स्त्री को नायिका कहते हैं। जैसे- देखी सोय सोमा सुख पावा, हृदय सराहत बचन न आवा । जनु विरंचि सब निज निपुणाई, बिरचि विश्व कहें प्रगट दिखाई। सुन्दरता-कहूँ सुन्दर करई, छविगृह दीपशिखा जनु बरई। सब उपमा कति रहे जुठारी, केहि पटतरिय विदेह कुमारी तुलसी