पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१४६

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५४ काव्यदर्पण बालंबन कभी तो पात्र-विशेष के भावों के होते हैं और कभी कवि के भावों के । जब राम लक्ष्मण के लिए विलाप करने लगते हैं तब इतनी करुणा उमड़ आती है कि हम भी उसीमें निमग्न हो जाते हैं। राम का शोक हमारा भी शोक हो जाता है। आलंबन के प्रति राम के भाव हमारे भी हो जाते हैं। उस समय भावात्मक तन्मयता में लक्ष्मण राम के हो नही, हमारे भी भाई हो जाते हैं। इस प्रकार की भावना हमारी संवेदनात्मक भावना कहलायगो या शुक्लजी के शब्दों में हृदय को यह मुक्तावस्था रसदशा कहलायगी । आत्मविभोर करनेवाली यह रस-दशा इतनी प्रबल होती है कि किसी विवेक को प्रश्रय ही नहीं मिलता। जब बिलखती हुई पतिव्रता शकुन्तला का दुष्यन्त निर्मम होकर परित्याग कर देता है तब हमारे हृदय की उसके साथ ऐसी एकात्मकता हो जाती है कि हम शकुन्तला के दुःख को अपना ही दुःख समझ बैठते है और उसके दुःख से विकल हो जाते हैं। वहां हमें यह समझने का भी अवकाश नहीं रहता कि दुष्यन्त शाप के कारण निर्दोष है और पर-स्त्री पराङ्मुख है। फिर वह प्रलोभनीय होने पर भी उसे ग्रहण करे तो कैसे ? यहाँ कुछ समझदार पाठक या दर्शक भले ही दुष्यन्त से सहानुभूति रखें, पर यहां चिंतन की स्थिति डांवाडोल ही रहती है । ___ दूसरे प्रकार का वह बालंबन या आश्रय है, जिससे हमारा साधारणीकरण नहीं होता। अपनी मति-गति, संस्कृति, रुचि तथा परिस्थिति के कारण हमारे सामने श्रानेवाली घटनाएँ हमें विपरीत दिशा की ओर जाने के लिए विवश करती है। हम जब अपने विजयी शत्रु को हँसते देखते हैं तब हमारा क्रोध और भी भड़क उठता है। क्योंकि वहाँ इमारी ममता परिच्छिन्न हो रहती है, अपरिच्छिन्न या साधारणीकृत नहीं होती। कैकेयी जब सत्य का गुण-गान कर दशरथ से राम-वनवास का वर माँगती है तब हमें उसपर क्रोध आता है। कैकेयो के समान लोभ या ईया हममें नहीं उपजती। इस दशा में भी हमें काव्यानन्द प्राप्त होता है, पर उसे हम रस नहीं कह सकते। यहाँ जो हृदय की स्थिति होगी वह प्रतिक्रियात्मक कहलायगी। स्थल रूप में इसे भाव-दशा कह सकते हैं, क्योंकि ऐसे स्थानों में प्रायः संचारो की प्रधानता रहती है। इसमें संदेह नहीं कि काव्य के विषय या काव्यगत भाव के श्रालंबन सभी पदार्थ हो सकते हैं, पर सभी में काव्य का सौन्दर्य नहीं आ सकता। जो कविता रखनीगंधा पर की जा सकती है वह नीम के फूल पर संभव नहीं। यों तो गंध दोनों में है। साहित्य में वर्णन के साथ विषय के सौंदर्य का सहभाव भी आवश्यक है। कविता के अपने पालेबन होते हैं। मैथ्यू आर्नल्ड के कहने का कुछ ऐसा ही भाव १ परस्य न परस्येति ममेवि न ममेति च । बवास्वादे विभावावे परिपको न विद्यते । साहित्यदर्पण -