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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१४७

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काव्यदर्पण वायु के कोरे से वन को लताए सब झुक जाती-नजर बचाती है- अंचल से मानो हैं छिपाती मुख देख यह अनुपम स्वरूप मेरा।-निराला इस कविता में रूप लज्जा का आलंबन है और सौन्दर्यराशि को उसका श्राश्रय भी कह सकते हैं , पर श्राश्रय के किसी स्थायी भाव का वह विषय नहीं है। यहाँ रूप गवं की व्यंजना है और रूप उसका विषय बन जाता है। ___ कहीं-कहीं मुख्य प्रालंबन को गौण रूप देकर माध्यम के द्वारा भाव व्यक्त करना रहस्यवादियों का ध्येय हो गया है । अतः इसमें अन्योक्ति-प्रणाली का प्रायः आश्रय लेना पड़ता है । जैसे, पाकर खोता हूँ सतत कभी खोकर पाऊंगा क्या न हाय ? भय है मेरा यह मिलन आज फिर शाप विरह का पा न जाय ? क्या करू छिपा सकता न और इस 'छाया-नट' से हृदय-हार ।-द्विज इसमें 'छायानट' अभिप्रेत प्रेमपात्र का ही माध्यम है। इस रैली में वेदना, निराशा, अतृप्ति आदि की अभिव्यक्ति बड़ी विलक्षणता से की जाती है। कहीं-कहीं अाल बन अप्रतीत-सा प्रतीत होता है। से, १ पथ देख बिता वी रन मैं प्रिय पहचानी नहीं। २ सुनाई किसने पल में आन कान मैं मधुमय मोहक तान ? ३ सुरभि बन जी थपकियां देता मुझे नींद के उच्छवास-सा वह कौन है ?-महादेवी ऐसे भावगीतों का कवि हो श्राश्रय होता है। कहीं-कही बालबन का पता नहीं रहता । जैसे, कुसुमाकर रजनी के जो पिछले पहरों में खिलता, उस मृदुल शिरीष सुमन-सा मैं प्रात-धूल में मिलता।-प्रसाद यहाँ कवि ही विषय या आश्रय सब कुछ है । 'मैं' यही बताता है। हास्य और वीभत्स ऐसे रस हैं, जिनमें बालंबन की प्रधानता रहती है। कैवल बालंबन के वर्णन से ही रसव्यक्ति हो जाती है। इनमें श्राश्रय को प्रतीति नहीं होती। अर्थात् जिसके प्रति हास और धूणा उत्पन्न होती है, प्रायः उसका वर्शन नहीं होता । जैसे, बोना पात बखूर को तामें तनिक पिसान । राजा करने लगे छठे छमासे वान-प्राचीन