उद्दीपन विभाव यहाँ कृपण राजा आलंबन विभाव है। केवल उसीके बबूल के पत्रों के दोने में थोड़ा-सा पिसान रखकर छठे-छमासे दान करने की क्रिया से हास की प्रतीति हो जाती है। आंती के तार के मंगल कंगन हाथ में बाँध पिशाच की बाला। कान में आंतन के झुमका पहिरे उर में हियरान की माला ॥ लोह के कीचड़ से उबटे सब अंग बनाये सरूप कराला । पीतम के सँग हाड़ के गूदे की मद्य पिये खुपरीन के प्याला ॥ मालतीमाधव यहाँ 'पिशाच को बाला' के वर्णन से ही वीभत्स रस का संचार हो जाता है । मारि दुशासन फारि उर रुधिर अंग लपटाइ । आवत भीय तिन्हें मिले धर्मराज दृग नाइ।-प्राचीन इस दोहे में आश्रय युधिष्ठिर की झलक है। 'हिंग नाई से यह बात झललती है। सातवीं छाया उद्दीपन विभाव जो रति आदि स्थायी भावों को उद्दीपित करते है -उनकी आस्वाद- योग्यता बढ़ाते हैं वे उद्दीपन विभाव हैं। उद्दीपन विभाव प्रत्येक रस के अपने होते है। शृङ्गार रस के सखी, सखा, दूती, षड्ऋतु, वन, उपवन, चन्द्र, चाँदनी, पुष्प, नदी, तट, चित्र आदि उद्दीपन विभाव होते हैं। नायिका को सखी। इसके चार भेद होते है-१ हितकारिणी, २ व्यंग्यविदग्धा ३ अन्तरंगिणी और ४ बहिरंगियो । एक उदाहरण- व्यंग्यविदग्धा सखी ( एक सखी की नायिका के प्रति उक्ति ) प्रथम भय से मीन के लघु बाल जो थे छिपे रहते गहन जल में तरल कमियों के साथ कीड़ा की उन्हें लालसा अब है विकल करने लगी।-पंत नायिका की बढ़ती हुई लालसा को देखकर सखी का व्यंग्य है। नायिका को भूषित करना, शिक्षा देना, क्रीड़ा करना, परस्पर हासविनोद करना, सरस पालाप करना श्रादि उसके कार्य हैं । एक उदाहरण लीजिये- रंजित कर दे यह शिथिल चरण ले नव अशोक का अरुण राग, मेरे मंडन को आज मधुर ला रजनीगंधा का पराग
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