पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

यह कि “यौन रति, पुत्रादिविषयक रति ( वात्सल्य ) आदि सहजातीय सारी चित्तवृत्तियाँ एक ही श्रेणी की है।" 'वात्सल्य तो रति है ही; पर समालोचक के कहने का अभिप्राय यह मालूम होता है कि वात्सल्य मे जो रति है, वह कामवासनामूलक ही है, चाहे वह सहेतुक हो वा अहेतुक । इसकी पूर्ति स्पर्श, आलिंगन, चुम्बन आदि से की जाती है। यही फ्रायड का सिद्धान्त है । वह तो यह भी कहता है कि "बालक के स्तन चूसने और नग्न वक्षस्थल पर उन्मुक्त भाव से पड़े रहने पर एक परम अज्ञात और अप्रकट कामवासना-धारा दोनो ही प्राणियो, माता और सन्तान, के बीच प्रवाहित होती रहती है।" ____ हम इस सिद्धान्त को नहीं मानते । हमारे सम्बन्ध मे संभव है, यह कहा जाय कि हम अपनी संस्कृति, सभ्यता तथा शिक्षा-दीक्षा के कारण ऐसा कहते है। सो ठीक नहीं । मैग्डुगल आदि अनेक मनोवैज्ञानिक फ्रायड के इस सिद्धान्त से सहमत नहीं है । इनकी बात अलग छोडिये । फ्रायड के पट्ट-शिष्य युग का इस विषय मे बराबर मतभेद बना रहा और कभी उसमे अन्तर नहीं आया। फ्रायड का यह भी कहना है कि रति या प्रेम एक ही शब्द है, जो दोनो के लिए प्रयुक्त होता है। किन्तु, हमारे यहाँ इसके अनेक प्रकार है- इसकी भिन्न-भिन्न व्याख्याएँ है। इससे यह नहीं कहा जा सकता कि वह एक ही शब्द है और सर्वत्र एक ही भाव का द्योतक है। यदि रति कान्ताविषयक होती है, तो विभाव आदि से परिपुष्ट होकर शृङ्गार- रस मे परिणत होती है और यही रति मुनि, गुरु, नृप, पुत्र आदि में होती है तब उसे भाव की संज्ञा दी जाती है। सोमेश्वर का कहना है कि "स्नेह, भक्ति, वात्सल्य- रति के ही विशेष है।"२ समान मे जो रति होती है, उसका नाम है स्नेह ; उत्तम, श्रेष्ठ तथा मान्य व्यक्तियो मे जो रति होती है, उसे भक्ति और माता, पिता आदि की सन्तान मे जो रति होती है उसे वात्सल्य कहते है। ___ रूप गोस्वामी ने अपने 'भक्तिरसामृतसिन्धु' में मुख्य भक्ति-रस के जो पाँच विभाग किये है, उनमे वात्सल्य का पृथक रूप से उल्लेख है । वे है-शान्त, प्रीत ( दास्य ), प्रेयः ( सख्य ) वात्सल्य और मधुर अथवा उज्ज्वल ( शृङ्गार )। १. Love responses include "those popularly called 'affectionate good natured' 'kindly'..... as well as responses, We see in adults between sexes. They all have common origin"-आग्डेन के A B Cof Psychology का उद्धरण | २. स्नेहो भक्तिर्वात्समितिरतेरेव विशेषः ।