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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१८

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बेन ने भी अपने रेटोरिक ( Rhetoric ) नामक ग्रन्थ में शृङ्गार-रति से वात्सल्य-रति को एकदम भिन्न माना है। उसने लेखन-कला के उपकारक जिन भावनात्रो का उल्लेख किया है, उनमे प्रेम ( love of sexes ) और वात्सल्य (parental feeling ) का पृथक्-पृथक् रूप से उल्लेख किया है और उनके उदाहरण भी दिये है । यहाँ रति पर कुछ विचार कर लिया जाय। व्यासदेव ने रति की उत्पत्ति अभिमान से मानी ' है। यह साख्यशास्त्र के अनुकूल है । यह मनोविज्ञान-सम्मत भी है । क्योकि, आत्मप्रवृत्ति (Ego-instinct) एक प्रधान प्रवृत्ति है और उसका आविष्कार व्यापक रूप से होता है । सभी विकारों का सम्बन्ध अभिमान से है और रति अहंकार का उत्कट प्रकार है । भोज ने भी कहा है कि "ग्रहकार ही शृङ्गार है, वही अभिमान है, वही रस है और उसीसे रति आदि उत्पन्न होते है २ अहंकार सांसारिक पदार्थों से सम्बन्ध रखता है और वे पदार्थ रति, शोक आदि भावों की उत्पत्ति के कारण है। ___शृङ्गारिक रति की परिभाषा ही भिन्न है। वह वात्सल्य मे संघटित नहीं हो सकती । “अनुरागी युवक-युवतियो की एक दूसरे के अनुभव-योग्य जो सुखसंवेद- नात्मक अनुभूति है, वही रति है।3 मनोनुकूल विषयो मे सुख-सवेदनात्मक इच्छा को भी रति कहते है ।"४ इस रति का आप जहाँ चाहें प्रयोग कर सकते है-शृङ्गार मे भी कर सकते है और अन्यान्य विषयो मे भी। जुगुप्सा या घृणा स्थायी भाववाला वीभत्स-रस भी काव्य मे मनोनुकूल होने के कारण रति मे आ ही जाता है। अनेक ऐसे कारण हैं, जिनसे वात्सल्य में कामवासना वा शृङ्गारिक रति-भावना की बात उठ ही नहीं सकती। गर्भाधान से ही माता के मन मे वात्सल्य का प्रादुर्भाव हो जाता है । गर्भस्थ शिशु की गति से माता के मन और शरीर मे वात्सल्य जाग उठता है। माता गर्भस्थ शिशु की चिन्ता से सदा चिन्तित रहती है। वह ऐसा कोई काम नहीं करती कि गर्भस्थ शिशु को कुछ भी क्षति पहुंचे। माता उसके लालन- पालन के विचार से पुलकित हो उठती है। संतान की भावी रूपरेखा को कल्पना से उसके आनन्द का पारावार नहीं रहता । अपनी गोद मे शिशु की क्रीड़ा का विचार मन मे आते ही उसका हृदय नाच उठता है । क्या इस वात्सल्य मे उक्त कुत्सित प्रेरणा का कही भी स्थान है ? १. अभिमानादतिः सा च "|-अग्निपुराण २. तच्च आत्मनोऽहकारगुणविशेषं ब्रमः। स शृङ्गार सोऽभिमानः स रसः। तत एव ___रत्याइयो जायन्ते । शृंगारप्रकाश ३. परस्परस्वसंवेद्य-सुखसवेदनात्मिका | ___ याऽनुभूतिमिथः सैव रतिवूनोः सरागयोः।-भावप्रकाश ४. मनोऽनुकूलेष्वर्थेषु सुखप्तवेदनात्मिका ! इच्छा रति""""| भा०प्र०