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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१७४

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। “चारी भाव और चित्तवृत्तिवा ५ “यहां प्राणों का छूट जाना रूप जो मुख्य मरण है, उसका ग्रहण नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये जितने भाव हैं ये सब चित्तवृत्ति-रूप हैं। उनमें उस प्रकार के मरण का कोई प्रसंग ही नही । दूसरे, शरीर-प्राण-संयोग-हर्ष श्रादि सभी व्यभिचारी भावों का कारण है। वह ऐसा कारण नहीं कि केवल कार्य की उत्पत्ति के पूर्व हो वर्तमान रहे; किन्तु ऐसा कारण है जो कार्य की उत्पत्ति के समय भी रहता है । इस अवस्था में मरण-भाव मुख्य मरण ( शरीर-प्राण-वियोग ) के रूप में नहीं लिया जा सकता। क्योकि, उसकी उत्पत्ति के समय शरीर-प्राण-संयोग उसका कारण नहीं रह सकता। अतः मरण के पूर्वकाल की चित्तवृत्ति हो यहाँ मरण नामक व्यभिचारी भाव है ; क्याकि उसकी उत्पत्ति के समय शरीर-प्राण-संयोग रहता है ।"" पण्डितराज की इस वैज्ञानिक व्याख्या से भी उन्हें सन्तोष नहीं। कारण वह कि लक्षण और उदाहरण से मरण व्यनित होना चाहिये सो नहीं होता और होना चाहिये उसी को व्यंजना। उदाहरण का अनुवाद है- जेहि पियगुन सुमिरत अबहिं सेज बिलोकी हाय । अब वह बोलति ना सुतनु थके बुलाय बुलाय । -पु० श० चतुर्वेदी यहाँ मूछो की व्यंजना होती है और यह 'मोह संचारी' का अनुभाव है । यह सब कुछ होते हुए भी मरण मनोविकार है और उसे भाव को संज्ञा प्राप्त हो सकती है। प्राचार्यों के 'मरण भाव के लक्षणों और उदाहरणों में जो गड़बड़ी है उसका कारण यह है कि 'मरण' को अमांगलिक और वजनीय समझा जाता है और रस-विच्छेद का कारण भी माना जाता है । मरण के सम्बन्ध में निम्नलिखित व्यवस्था है- ___ मरण के प्रथम की अवस्था-वियोग में शरीर-त्याग करने की चेष्टा-का ही मरण में वर्णन होना चाहिए। जैसे, पूछत हौं पछिताने कहा फिरी पीछे ते पावक ही को मलौगे। काल की हाल में बूड़ति बाल विलोकि हलाहल ही को हिलौगे । १. हिन्दी रसगंगाधर' २. मोहो विचित्रता भीतिदुःखवेगानुचितनैः । मूर्छनाशानपतनभ्रमणादर्शनादिकृत् । साहित्यदर्पण ३. विवाहो भोजनं शायोत्सर्गौ मृत्यूरतस्तथा ॥ ४. रसविच्छेद-हेतुत्वात् मरण नैय यंते । सा० दर्पण ५. शृङ्गाराश्रयालम्बनत्वेन मरणे व्यवमायमात्रमुपनिबन्धनीयम् । दशरूपक मरणमिति न जीवित वियोग उच्यते । अपितु चैतन्यावस्थैव, प्राणत्यागकर्तृ कात्मिका या सम्बन्धाधवसरगता मन्तव्या । अभिनवभारती