पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१७७

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काव्यदर्पण 'सुख से सोये कहने में केवल झान को ही मात्रा नहीं, भाव की भी है। जब तक अनुभूति न होगी तब तक सुख की बात नहीं आ सकती। अनुभूति मन की हो बात है। 'भावात्मक निद्रा' निद्रा की पूर्वावस्था है। इसमें तन्द्रा की प्रबलता रहती है। उदाहरण ले- कहती सार्थक शब्द कुछ बकती कुछ बेमेल । झपकी लेती वह तिया करती मन में खेल ।-अनुवाद यहाँ निद्रा नहीं है। सार्थक शब्द कहने में ज्ञानेन्द्रिय की सक्रियता है। अनायास ऐसा हो जाता हो, यह बात नही। क्योंकि यह स्वप्नावस्था में ही संभव है । 'सार्थकानर्थकपदं ब्रवति' में यह बात नहीं कही जा सकती। यहाँ निद्रा की व्यंजना नायक के मन में एक भाव पैदा करती है। इससे सन्तोष न हो तो यह उदाहरण लें- कल कालिंदी-फूल कदबन फूल सुगन्धित केलि के कुंजन में; थकि झूलन के झकझोरन सौं बिखरी अलक कच पुञ्जन में। कब देखहुँगी पिय अंक में पौढ़त लाड़िली को मुख रंजन में; कहियो यह हस ! वहाँ जब तू नंदनंदन लै कर कंजन में ।-पोद्दार ललित की हंस के प्रति इस उक्ति में राधाजी की निद्रावस्था की व्यंजना है। यहां निद्रा नही है जो भौतिक कही जाती है ; किन्तु निद्रा संचारी भाव है। यह भाव विप्रलम्भ शृङ्गार को पुष्टि करता है। एक चित्त की तन्मयावस्था भी होती है, जो प्रलय से भिन्न है। इसमें आदमी सोता नहीं, पर सोने की सारो क्रियाएँ दीख पड़ती हैं। फिर भी चित्त का व्यापार चलता रहता है। इसमें वाह्य विषयों से निवृत्ति नहीं होती, ज्ञानेन्द्रियों को सक्रियता बनी रहती है और बुद्धि का विषयाकार कुछ परिणाम होता है। ये बातें निद्रा में नहीं होतीं । एक ऐसा उदाहरण उपस्थित किया जा सकता है- चिन्तामग्न राजा घूमता है उपवन में- होकर विवेह-सा बिसार आत्मचेतना, बंब हुई आँखें हुमा शिथिल शरीर भी; खुल गये कल्पना के नेत्र महीपाल के।-वियोगी कवि ने इसे जाग्रत स्वप्न कहा है। हम इसे मानसिक निद्रा कहते हैं ; क्योंकि स्वप्न भौतिक निदी का ही परिणाम है।'