पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१९

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कृष्ण मथुरा चले गये है। वहाँ सब प्रकार का सुख है । किसी चीज की कमी नहीं । फिर भी यशोदा को चिन्ता है- प्रात समय उठि माखन रोटी को बिनु माँगे दैहै । को मेरे बालक कुअर कान्ह को छिन-छिन आगो लहै । यह तो वात्सल्य का ही प्रभाव है। यशोदा के हृदय मे पैठकर देखिये । यहाँ वात्सल्य ही उफना पडता है, दूसरा कुछ नहीं है। माता-पिता का वात्सल्य स्नेह का सार, चेतना की मूर्ति कथा सुधारससेक-सा होता है । अतः, फ्रायड की रति वात्सल्य मे नही मानी जा सकती। तीसरा आक्षेप एक प्रगतिवादी सुप्रसिद्ध साहित्य समालोचक लिखते है-“साहित्य विकासमान है और वह एक महान् सामाजिक क्रिया है । इसका सबसे बडा सबूत यह है कि प्राचीन आचार्यों ने भविष्य देखकर जो सिद्धान्त बताये थे, आज वे नये साहित्य पर पूरी-पूरी तरह लागू नहीं हो सकते। उन्ह लागू करने से या तो पैमाना फट जायगा या अपने ही पैर तराशने होगे। ____साहित्य के विकासमान होने और महान् सामाजिक क्रिया होने में किसीका कुछ, विरोध नहीं। पर, सबूत की बात मान्य नहीं है। पहले साहित्य है, पीछे शास्त्र । पहले लक्ष्य-ग्रन्थ है, पीछे लक्षण-ग्रन्थ । इसका पक्का और अखण्डनीय प्रमाण यही है कि उदाहरण उन्हों आदर्श लक्ष्य-ग्रन्थो से लिये जाते है, उनके भेद किये जाते है और उनके गुण-दोषों की विवेचना की जाती है। आचार्य भविष्यद्रष्टा नहीं होते । जो उनके सामने होता है, उसीसे अपनी बुद्धि लड़ाते है और शास्त्र का रूप देते है। इस दृष्टि से साहित्य दर्शन या विज्ञान नहीं है । यह बात लोकोक्ति के रूप मे मानी जाने लगी है कि “कलाकार समालोचकों के जन्मदाता होते है।” इससे प्राचीन आचार्यों को भविष्यवादी कहना बुद्धिमानी नहीं है । अभी पुराने सिद्धान्त पूरे-पूरे लागू हो सकते है। पैमाना फटने की तो कोई बात नहीं। पैर नहीं, बुद्धि की तराश-खराश होनी चाहिये जर । __ वे ही आगे लिखते है-काव्य के नौ रसो से नये साहित्य की परख नहीं हो सकती। परखने की कोशिश की जायगी, तो उसका जो नतीजा होगा वह नीचे के वाक्यो से देख लीजिये- १. यदि किसी उपन्यास मे किसी कुप्रथा की बुराई है तो वह वीभत्स- प्रधान माना जायगा। १. 'हंस', सितम्बर, १९४६