पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१८२

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संचारियों का अन्तर्भाव सोलहवीं छाया संचारियों का अन्तर्भाव संचारी भावों की कोई संख्या निर्धारित नहीं हो सकती। विचार-विमर्श की सुविधा के लिए इनको ३३ संख्या निर्धारित कर दी गयी है। ये तैंतीसों संचारी भाव यथासंभव सभी रसों में उदित और अम्त होते रहते हैं । इन परिगणित मनोवृत्तियों के अतिरिक्त भी जो अनेक भाव हैं उनका इन्हीं में प्रायः अन्तर्भाव हो । जाता है । जैसे, मात्सर्य का असूया में उद्वेग का त्रास में, दंभ का अवहित्था में, घृष्टता का चपलता में और विवेक तथा निर्णय का मति में, क्षमा का धृति में इत्यादि । ऐसे ही अनेक भाव हैं, जिनके अन्तर्भाव को चेष्टा नही की गयी है, इन्हीम अन्तर्भाव किया जा सकता है । तैंतीसों संचारियों में भी कितने ऐसे हैं, जिनमें नाममात्र का भेद है । जैसे, दैन्य-विषाद, शंका-त्रास आदि । भोज ने 'शृङ्गार-प्रकाश में मरण और अपस्मार तो छोड़ दिये हैं। पर तैंतीस पूरा करने के लिए ईष्यों और शम को व्यर्थ हो जोड़ दिया है । क्योंकि, इनका अन्तर्भाव असूया और निर्वेद में हो जाता है। - कवि देव ने 'छल' नामक ३४वे संचारी का 'भावविलास' में उल्लेख किया तो तात्कालिक कविगण्डल चकित हो गया । पर यह उनका आविष्कार नहीं । 'रस- तरंगिणी' में इसकी चर्चा है और अवहित्था नामक मंचारी में इसे अन्तभूत किया गया है । 'देव' जी ने इसका कम खयाल किया कि यह भी व्यङ्ग ही होता है और उसे वाच्य बना डाला । उदाहरण का यह उत्तराद्ध' है- चुमि गई मुंह औचक ही पटु ले गयी पै इन वाही न चीन्हो । छैल भले छिन ही में छले दिन ही में छबीली भलौ छल कीन्हो । इसके पूर्व को पंक्तियों में व्यञ्जित छल का भी महत्त्व नष्ट हो गया। श्राचार्य शुक्ल ने 'चकपकाहट' को संचारी के रूप में उद्भावित किया है और इस आश्चर्य का हलका भाव बताया है। "चकपकाहट किसी ऐसी बात पर होती है जिसकी कुछ भी धारणा हमारे मन में न हो और जो एकाएक हो जाय ।" रावण चकपकाकर कहता है- बांधे बननिधि ? नीरनिधि ? जलधि ? सिंधु ? बारीस ? सत्य तोयनिधि ? कंपति उदधि ? पयोधि ? नदीस ?-तुलसी