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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१८३

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६४ काव्यदर्पण इसका अन्तर्भाव 'आवेग' संचारों भाव में हो जायगा। क्योंकि संभ्रम को आवेग कहते है । यहाँ आवेग उत्पातजन्य है। ___ऐसा ही उनको 'उदासीनता' सचारी का श्राविष्कार है। वे कहते हैं 'काव्य के भाव-विधान में जिस उदासीनता का सन्निवेश होगा, वह खेद-व्यंजक ही होगी। उसे विषाद, क्षोभ आदि से उत्पन्न क्षणिकमानसिक शैथिल्य समझिये। हमहूँ कहब अब ठकुरसुहाती, नाहि त मौन रहब दिनराती। कोउ नृप होउ हहिं का हानो, चेरि छाडि अब होब कि रानी । -तुलसी यह सहज ही निर्वेद में चला जायगा । क्योंकि निर्वेद में आपत्ति, ईर्ष्या आदि के कारण अपने को धिक्कारा जाता है। यही बात इसमें है। जायसी में शुक्ल जी लिखते हैं-'जितना दुःख औरों का दुःख देखकर सुनकर होता है उतना दुःख प्रिय व्यक्ति के सुख के अनिश्चयमात्र से होता है जिस प्रकार 'शंका' रति भाव का संचारी होता है उसी प्रकार यह 'अनिश्चय' भी। परिस्थिति-भेद से कहीं संचारी केवल अनिश्चय तक रहता है और कही शंका तक पहुँच जाता है। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि जब एक 'शंका' सचारी है ही, फिर बीच में 'अनिश्चय' बढ़ाने की क्या आवश्यकता है ? कौशिल्या और यशोदा के मुख से जिस अनिश्चय की व्यञ्जना करायी गयी है उत्तको शंका को व्यंजना मानने में कोई साहित्यिक अपकर्ष नहीं होता । अनिश्चय के स्थान पर भी कालिदास कहते हैं- 'स्नेहः खलु पापशंको ।' हृदय में कोई दुरभिसन्धि-कोई भेद-भाव-न रखना सरलता है । निश्छल “वचन, अकपट व्यवहार, अल्हड़पन आदि इसके अनुभाव हैं। उतेजित हो पूछा उसने उड़ा ! अरे वह कैसे ? फुर से उड़ा दूसरा, बोली उड़ा देखिये ऐसे। भोलापन यह देख चकित हो मुख-छबि खूब निहारी। क्षणभर रहा निरखता इकटक तन की दशा बिसारी।-भक्त देखें, साहित्याचार्य इस सरलता को-भोलापन को किप्त संचारी में ले जाते हैं। यह स्त्रियों का 'भौग्ध्य' नामक अलंकार नहीं है। वह अज्ञानवश जिज्ञासा में होता है। आप यह शंका न करें कि भोलापन तो उक्त है; पर इससे कुछ आता-जाता नहीं। क्योंकि पूर्वाद्ध से ही सरलता या भोलापन व्यजित हो जाता है। सरलता समान भाव से स्त्री-पुरुषों में हो सकती है। इससे यह स्त्रियों के अलंकार में नहीं जा सकती।