पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१८५

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स्थायी भाव के भेद होते हैं और ये हो आस्वाद के मूल हैं। इनमें यह शक्ति है कि विरुद्ध या अविरुद्ध दूसरे भावों को अपने में पचा लेते हैं। अन्य भाव इन्हें मिटा नही सकते ।२ . ____ स्थायी भावों की आस्वादयोग्यता और प्रबन्धव्यापकता प्रधान लक्षण है। ये जब उत्कट, प्रबल, प्रभावी और प्रमुख होंगे तभी इनमें उक्त गुण आवेंगे। ये सभी बाते स्थायी भावों में ही संभव है। अभिनवगुप्त ने नाट्यशास्त्र को टीका में स्थायी भावों की पुष्टि में जो तर्क उपस्थित किये हैं उनसे यह सिद्ध है कि स्थायी भाव मूलभूत और सहजात हैं। कितने हो विद्वान् रति, हास्य आदि को सुखात्मक, शोक, भय आदि को दुःखात्मक और निर्वेद या शम को उदासीन मनोभाव मानते हैं, जो विवादास्पद हैं। अठारहवीं छाया स्थायी भाव के भेद जो भाव वासनात्मक होकर चित्त में चिरकाल तक अचंचल रहता है, उसे स्थायी भाव कहते हैं। स्थायी भाव को यह विशेषता है कि वह (१) अपने में अन्य भावों को लौन कर लेता है और (२) सजातीय तथा विजातीय भावों से नष्ट नहीं होता। वह (३) आस्वाद का मूलभूत होकर विराजमान रहता है और (४) विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों से परिपुष्ट होकर रस-रूप में परिणत हो जाता है। उक्त चारों विशेषताएँ अन्य सब भावों में से केवल निम्नलिखित नौ भावों में ही पायो जाती है, जो स्थायी भाव के भेद हैं। इन नौ भेदों का क्रमशः संक्षेप में वर्णन किया जाता है। १. रति किसी अनुकूल विषय की ओर मन की रुझान को रति करते हैं। प्रोति, प्रेम अथवा अनुराग इसको अन्य संज्ञाएं हैं। १ बहूनां चित्तवृत्तिरूपाणां भावानां मध्ये यस्य बहुल रूपं यथोपलभ्यते स स्थायी भावः। २ अविरुद्धा विरुद्धा वा यं विरोधातुमक्षमाः। आस्वादांकुरकन्दोऽसौ भाव स्थायीति संशितः । सा० दर्पण ३ नाट्यशास्त्र, गायकवाड संरकरण, पृष्ठ २८३, २८४, २८५ देखो। ४'विरुद्वरविरुद्ध भावविच्छिद्यते न यः। आत्मभाव नयत्यन्यान् स स्थायी लवणाकरः । दशरूपक का०द०-१२