पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६८ फायद५५ स्थायी भाव जब सहायक सामग्री से परिपुष्ट होकर व्यंजित होता है तब रस में परिणत हो जाता है । जैसे, शृङ्गार रस मे रति स्थायी भाव होता है। परन्तु जहां परिपोषक सामग्री नहीं रहती वहाँ स्वतंत्र रूप से स्थायी भाव ही ध्वनित होता है। इसी के उदाहरण दिये जाते हैं- १ जासु बिलोकि अलौकिक शोभा, सहज प्रतीत मोर मन क्षोभा। ___सो सब कारण जान विधाता, फरकहिं सुभग अंग सुनु भ्राता । तुलसी सौता की शोभा देख राम के मन में क्षोभ होने और अग फड़कने से केवल रति भाव की व्यजना है। २ हृदय की कहने न पाती, उमंग उठती बैठ जाती। ___मै रही हूँ दूर जिनसे वह बुलाते पास क्यों ? -महादेवी इस प्रकार की डांवाडोल स्थिति में रति भाव की व्यञ्जना है । २. हास विकृत वचन, कार्य और रूप-रचना से सहृदय के मन में उल्लास उत्पन्न होता है, उसे हास कहते हैं । जैसे- दूर क्यों न बांस की हैं बाँसुरी को घर देते, पास में सिनेमा एक टाकी रख लीजिये। छोड़कर पीताम्बर पीला त्यों दुपट्टा दिव्य, शर्ट और पैट बस खाकी कर लीजिये । मक्खन, मलाई, दूध, घृत का विचार त्याग खोल मधुशाला एक साकी रख लीजिये। शंख, चक्र, गदा, पदम छोड़ चारों हाथ बीच छड़ी, घड़ी, हैट और हाकी रख लीजिये ।-चोंच कृष्णमो का उपदेश देने में हास्य स्थायी भाव को व्यञ्जना ही है । • दूट बाप नहिं जुटहि रिसाने ! बैठिय होइहिं पाय पिराने । जो अति प्रिय तो करिय उपाई । जोरिय कोऊ बड़ गुनी बोलाई॥ इस रेंक्ति में हास्य की व्यंजनामात्र है, परिपूर्णता नहीं। ३. शोक प्रिय पदार्थ का वियोग, विभवनाश आदि कारणों से उत्पन्न चित्त की विकलता को शोक कहते हैं। ,