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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१९३

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स्थायी भाव को कोये १०५ बीसवीं छाया . स्थायी भाव की कसौटी भाव अनेक हैं। उनकी संख्या का निर्देश असम्भव है । प्रत्येक चित्तवृत्ति एक भाव हो सकती है । पर सभी भाव रस-पदवी को प्राप्त नहीं कर सकते । ऐसे तो रुद्रट का कहना है कि रस का मूल कारण रसन अर्थात् प्रास्वादन ही है। अतः निर्वेद श्रादि संचारी भावों में भी यह पाया जाता है । इससे ये भो रस ही हैं। इसके लिए प्राचार्यों ने कई सिद्धान्त बना रखे हैं। वे ये हैं- (१) आस्वाद्यत्व-भावों के स्थायी होने और रसत्व को प्राप्त होने के लिए पहली कसौटी है आस्वाद्यता। यह निश्चय है कि प्रास्वादन स्थायी भावों का होता है । पर आस्वादक के सम्बन्ध में मतभेद है। कोई कवि को मानता है और कोई सामाजिक को अर्थात् वाचक, श्रोता और दशक को। यह भी मत है कि अनुकर्ता को भी रसास्वाद होता है । जो भी हो, यह निश्चय है कि सामाजिकों को रसास्वाद होता है। जैसे भरत ने लिखा है-दर्शक स्थायी भावों का श्रास्वाद लेते है और प्रानन्द पाते हैं। इस प्रास्वाद्यता को रसनीयता और अनुरंजकता भी कहते हैं । शोक और विस्मय मूल-भूत भाव नहीं, पर श्रास्वाद्य होने के कारण हो रसस्त्र को प्राप्त होते हैं। (२) उत्कटत्व-इसका अभिप्राय भाव की प्रबलता है। जब तक कोई भाव प्रबल नहीं होता तब तक उसका मन पर प्रभाव नहीं पड़ता। लोभ एक प्रबल भाव है। इसमें उत्कटता भी है। यह इसौसे प्रमाणित है कि लोभ के कारण अनेक सत्यानाश में मिल गये हैं। पर इसमें आस्वाद्यत्व नहीं, इसीसे यह स्थायो भावों में समाविष्ट नहीं होता, रवावस्था को नहीं पहुंच पाता। श्रास्वाद को उत्कटता के कारण हो कान्यालकार के टीकाकार नमि साधु ने लिखा है कि सहृदयाह्नादन को अधिकता अर्थात् उत्कटता के कारण हो भरत ने आठ-नौ ही रस माने हैं। (३) पुरुषार्थोपयोगिता-रति आदि स्थायी भाव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पुरुषार्थोपयोगी है। उद्भट ने तथा टोकाकार इन्दुराज ने कहा है कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के उपयोगी भाव अर्थात् स्थायी भाव हो रस है और अन्य भाव १ रसनात् रसत्यमेषां मधुरादीनामिवोक्तमागयः। निदादिध्वपि तत्निकाममस्तीति तेऽपि रसाः । काव्यालंकार २ स्थाविमावान आस्वादयन्ति सुमनसः हर्षादोश्व गच्छन्ति । ना० शा. रसः स एव स्वायत्वात् रसिकस्येव वर्तनात् । द०रू. ३ भरतेन सहृदयावनकत्वप्राचुर्यात् सशां च आश्रित्य अष्टौ वा नव वा रसा उक्ताः।