पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/१९७

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रखनीय भावों को योग्यता १०६: क्रोध और अमर्ष-हृदय की तीक्ष्णता और कटु भाव साधारणतः समान हैं, फिर भी अमर्ष में खीझने का भाव स्थायी होकर नहीं रहता है। प्रतिशोध को भावना रहते भी इसमें क्रोध के समान नितान्त उग्रता नहीं होती। रौद्र रस के स्थायी भाव क्रोध का उदय अक्षम्य तथा दण्डयोग्य अपराध करने से होता है . किन्तु अमर्ष का निन्दा आदि से । शोक और विषाद-इन दोनों में विशेष और सामान्य का भाव है । जिस विषय पर अपना कुछ वश न चल सके, प्रतिकूलता अनुभव करते हुए केवल प्रोज को म्लान करते रहें, वह भाव विषाद के अंतभूत होता है। इसमें इष्ट-विनाश को नितांत मर्माहति नहीं होती और शोक में यही बात अनिवार्य होकर रहती है। प्रिय-नाश ही उसका उद्बोधक होता है । क्रोध और उग्रता-में यह भिन्नता है कि जहां वह भाव स्थायी रूप से होता है वहाँ क्रोध है और जहां संचारी रूप से होता है वहाँ उग्रता कहलाता है। अमर्ष और उग्रता-इन दोनों में यह,भेद है कि अमर्ष निर्दयता-रूप नहीं होता; क्योंकि उसमें निन्दा, तर्जन-गर्जन आदि हो कार्य होते हैं और उग्रता निर्दयता-रूप होता है । क्योंकि इसमें ताड़न, बध तक कार्य होते हैं। शङ्का और चिन्ता-शका में भय आदि से उत्पन्न कम्पन आदि होता है, पर चिन्ता में यह बात नहीं है । उसमें भय नहीं होता, सन्ताप आदि होता है । निर्वेद संचारी और निर्वेद स्थायी-निर्वेद संचारी इष्ट-वियोग आदि से उत्पन्न होता है । इसमें साधारण विरक्ति होती है। इससे केवल उदासीन भाव का हो ग्रहण होता है। जो निर्वेद परमार्थ-चिन्तन तथा सांसारिक विषयों को असार समझकर विराग होने से उत्पन्न होता है वह शान्त रस का व्यंजक होकर शान्त' रस का स्थायी भाव होता है । ग्लानि और श्रम-ग्लानि में मानसिक और शारीरिक आधि तथा व्याधि के कारण अमो की शिथिलता वा कार्य में अनुत्साह होता है और श्रम में शारीरिक परिश्रम के कारण थकावट उत्पन्न होती है। गर्व और उत्साहप्रधान गर्व-जहाँ रूप, बल, विद्या आदि का गर्व होता है वहीं गर्व संचारी होता है और जहां प्रच्छन्न गवं में उत्साह की प्रधानता होती है वहां वीर रस ही ध्वनित होता है, गर्व चारो ध्वनित नही होता।