पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विभाव आदि रस नहीं नाटक-सिनेमा देखनेवाले सहृदय कभी पात्रों को, कभी उसके अभिनय की और कभी भावों के उत्थान-पतन की प्रशंसा करते हैं। कभी-कभी कोई फिल्म देखने के बाद दर्शक कह उठते हैं कि यह तो बड़ा रही है। इसके न तो पात्र हो ठीक हैं और न उसके अभिनय हो । मनोभावों का मनोहर विश्लेषण दिखलाना तो दूर की बात है। इस प्रकार विवेचक द्रष्टाओं ने नटों का नाट्य देखकर यह निर्णय किया कि श्रालंबन-पात्र, अभिनय-अनुभाव और भावों का मनोहर विश्लेषण- संचारी भाव, इनमें जो चमत्कार हो-सामाजिकों का मनोमोहक हो वही रस है और चमत्कारी न होने से तीनों में से कोई भी रस-पद प्राप्त नहीं कर सकता। इससे वे इस सिद्धांत पर आये कि “त्रिषु य एव चमत्कारी स एव रख:" अर्थात् तीनों में जो चमत्कारी हो वही रस है, अन्यथा तीनो नहीं। ___पहले इस मत का खंडन हो चुका है। विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव में से कोई रस हो नहीं सकता, चाहे वह चमत्कारक हो वा चमत्कार शून्य । इसका कोई प्रश्न ही नहीं है। कारण यह कि भयानक रस का बालंबन व्याघ्र, वीर रौद्र, अद्भुत रसों का भी श्रालंबन हो सकता है। अभपात आदि अनुभाव जैसे शृङ्गार- रस के हो सकते हैं वैसे करुण और भयानक के भी । संचारी को भी यही दशा है । चिंता श्रादि चित्तवृत्तियाँ अर्थात् संचारी भाव, शृङ्गार-रस के 'रति' स्थायी भाव को जैसे समर्थ बनाती हैं वैसे हो वोर, करुण और भयानक रसों के स्थायी उत्साह शोक और भय को भी पुष्ट करती हैं । इस प्रकार एकरस के पूर्णतः निर्वाह करने में बड़ी गड़बड़ी मच जायगी । अतः एक-एक को पृथक् पृथक् रस मानना भारी भ्रम है। __ अन्त में भावुकों ने यह निश्चय किया कि वे पृथक-पृथक् नहीं सम्मिलित रूप में रस हैं। अर्थात् विभाव, अनुभाव तथा संचारी तीनों इकट्ठ रस-रुप हैं, इनमें कोई एक नहीं। पर यह भी विवेचको को रुचिकर प्रतीत नहीं हुश्रा । निश्चय दुश्रा कि जिससे श्रानन्द होता है वह एक ऐसी चित्तवृत्ति है-ऐसा मनोभाव है जो स्थायी रूप से रहता है। उसी मनोभाव को विभाव उत्पन्न करते हैं; उसके द्वारा ही अनुभाव उत्पन्न होते हैं, और संचारी साथ रहकर उसको ही पुष्ट करते है। सचारी भी चित्तवृत्तियाँ या मनोभाव ही हैं, पर स्थायी नहीं। स्थायी तो रति श्रादि इने- गिने भाव हैं। ये हो स्थायी भाव तीनो के संयोग से रस-रूप में परिणत होकर हमें आनन्द देते हैं। सत्ताइसवीं छाया रस व्यक्त होता है काव्यप्रकाश-कार और साहित्यदर्पण-कार ने रस को व्यक्त कहा है। व्यक्त का प्रय है प्रकटित वा प्रकाशित । अर्थात् जिसका अज्ञानरूप आवरण हट गया है उस