पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२३१

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१४४ काव्यदर्पण विद्यमान हैं, जिससे मानव-मन की वासना जाग्रत हो उठती है और वे आनन्दो-- पभोग करने लगते हैं। कवि के लिए मुख्य है अनुभूति की अभिव्यक्ति और पाठक के लिए मुख्य है व्यसना द्वारा रसानुभूति । इससे बालंबन आदि के विषय में कवि और पाठक दोनों के दो दृष्टिकोण होते हैं । एक उदाहरण से समझें। सुत बित नारि भवन परिवारा, होहिं जाहिं जग बारंबारा । अस विचारि जिय जागहु ताता, मिलहि न जगत सहोदर भ्राता ॥ -तुलसी इसमें काव्यगत ये रससामग्री हैं-(१) मूछित लक्ष्मण आलंबन, (२) लक्ष्मण के गुणों का स्मरण आदि उद्दोपन, ( ३ ) गद्गद वचन, अश्रमोचन आदि अनुभाव, (४) दैन्य श्रादि संचारी और ( ५ ) शोक स्थायी भाव हैं। कवि ने काव्य में व्यञ्जना का यही साधन प्रस्तुत कर दिया है। किन्तु पाठक के सामने लक्ष्मण नहीं, (१) राम बालंबन, (२) राम को दीनता, किकर्तव्यविमूढ़ता आदि उद्दीपन, (३) विषाद आदि संचारी, (४), आँखों में आँसू भर पाना, रोमांच होना, गला भर आना आदि अनुभाव और (५) शोक स्थायी भाव हैं। इस प्रकार रसपामग्रो का पृथक्करण काव्य शास्त्राभ्यासियो और हिन्दी के पाठकों को विचित्र-सा जान पड़ेगा; क्योंकि इस प्रकार न तो संस्कृत के ग्रन्थों में और न हिन्दी के ग्रन्थों में विभाग किया गया है। कारण यह कि रसोद्रेक के लिए सभी का साधारणीकरण होना आवश्यक समझा जाता रहा है ; किन्तु इस विभाजन में भी विभावादि का साधारणीकरण होने में कोई बाधा नहीं। हम भाव को बात एक-दो स्थानों पर प्रकारान्तर से पोछे कह भी आये हैं कि कवि के भाव के साथ साधारणीकरण होता है। विभावादि के साथ साधरणी-- करण का भी यही भाव है। कवि ने जो उपयुक्त वर्णन किया है उसमें उनके अन्तहदय की यह भावना है कि राम साधारण मानव के समान दुखित थे। यह भाव हमारे मन में भी उपजता है और हम राम के दुख को अपना समझने लगते हैं। इस प्रकार प्राचार्यों की बात को-विभावादि को कवि के भाव के रूप में ले लिया जाय तो साधारणीकरण के सम्बन्ध में अड़चन की कोई बात नही उठती । एक उदाहरण से समझिये- नृपाल निज राज्य को सुखित राम को दीजिये, " वृथा न मन को दुखी तनिक भी कमी कीजिये ।

  • ... यहाँ निरयदायिनी विषम कीति को लीजिये,

लबार! परलोक में सतत हाथ को मीजिये।-रा० च० उपा