पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२३४

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लौकिक रस और अलौकि रस लौकिक अनुभूति है। यह काव्यानुभूति की समकक्षता नहीं कर सकती। कारण अनेक हैं- कविता की उत्पत्ति प्रत्यक्षानुभूति से नहीं होती। उस समय कवि का हृदय इतना चंचल रहता है कि भाव को कोई रूप ही नहीं दे सकता। कवि जिस समय रचना करता है, उस समय वास्तविक घटना के साथ जो लौकिक भाव जड़े रहते हैं, उनका आश्रय नहीं लेता। लौकिक रूप में वास्तविक घटना के साथ अनुभूति- भाव हृदय के अंतस्तल में वासना रूप से अपना स्थान बना लेती है। जब समय पाकर वास्तव-निरपेक्ष वही वासना उद्बुद्ध होती है, तभी वह देश-काल से मुक्त होकर सर्वसाधारण के विभावन के योग्य होती है। फिर कवि इस विभावन-व्यापार के परिणामस्वरूप जो रचना करता है, वही श्रास्वाद-योग्य होती है। वर्डस्वर्थ का कहना है कि समय-समय पर मन में जो भाव संगृहोत होता है, वही किसी विशेष अवसर पर जब प्रकाश में आता है, तभी कविता का जन्म होता है। एक उदाहरण से समझे- .. वह इष्ट देव के मन्दिर की पूजा-सी, वह दीपशिखा-सी शान्त भाव में लीन, वह क्रूर काल-ताण्डव की स्मृति रेखा-सी, वह टटे तरु की छूटी लता-सी दीन- दलित, भारत की ही विधवा हैं।-निराला यहाँ विधवा का वह रूप नहीं है, जिससे करुणा का ही उद्रेक होता है। बल्कि उसमें भावुकता, पवित्रता, शान्ति तथा दीप्ति भी है। यदि इसको कोई परिष्कृत रूप कहे, तो ठीक नहीं ; क्योंकि एक ही रूप को परिष्कृत-अपरिष्कृत कहा जा सकता है। किन्तु, कविता में जो लौकिक अनुभव होता है वह तो रहता नहीं, वह रूपान्तर में प्रगट होता है ; उसका वही लौकिक रूप नहीं रहता। इससे दोनों की अनुभूतियां एक प्रकार की नहीं कही जा सकती। काव्यानन्द रसिकगत होता है; क्योंकि वह उसका भोक्ता है । काव्य-नाटकगत रस नही होता; क्योंकि उन्हों पात्रों के वे वृत्त होते है। अभिप्राय यह कि नाटक के पात्र अपने ही चरित्र दिखलाते हैं। वे समझते हैं क यह तो हमारा ही काम है। इसोसे कहा है कि 'अभिनय की शिक्षा तथा अभ्यासादि के कारण राम आदि के रूप का अभिनय करनेवाला रस का आस्वादयिता नहीं हो सकता;२ किन्तु, यह भी १ Poetry takes its origin from emotion recollected in tranquilty. २ शिक्षाभ्यासादि-मात्रेण राघवादेः सरूपताम् । दर्शयन्नतको नैव रसस्यास्वादको भवेत् | सा० द० -