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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२४१

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काव्यदर्पण __अन्त में अभिनव गुप्त को यही बात कहनी है कि रसना-आस्वाद-बोध-रूपः होती है। कितु लौकिक अन्य बोधों की अपेक्षा विलक्षण है । क्योंकि, विभाव आदि उपाव लौकिक उपायों से विलक्षण होते हैं। विभाव आदि के संयोग से रसास्वाद होता है। अतः, उस प्रकार रसास्वाद के भीतर होने के कारण रस लोकोत्तर या अलौकिक है। रसतरंगिणी-कार ने अलौकिक रस के तीन भेद माने हैं-स्वापनिक मानोथिक और औपनायक । इनमें अलौकिकता के यथार्थ तत्त्व न रहने के कारण इनका समादर न हुअा। कविवर 'देव' ने अपने 'भावविलास' में इनका उल्लेख किया है और तीनों के उदाहरण भी दिये हैं। पर इनमें कितनी अलौकिकता और रसबत्ता है जो विचारणीय है। तेंतालिसवीं छाया रस और मनोविज्ञान ___ रस के मूल भाव हैं और भाव हैं मन के विकार । इससे स्पष्ट है कि भाव का मन से गहरा सम्बन्ध है । रसो की व्याख्या भावों का मनोविज्ञान है। हमारा शास्त्रीय रसनिरूपण विज्ञान-सम्मत है। यद्यपि प्राचीन काल में मनोविज्ञान का विश्लेषणात्मक कोई शास्त्रीय पृथ्क अंग नहीं था तथापि प्राचार्यों ने रस की विवेचना में जो मनोवैज्ञानिक वैभव दिखलाया है वह वर्णनातीत है। पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने जो मानसिक शास्त्र की सृष्टि की है उसका विचार हमारे शास्त्रीय विचार के अनुकूल ही कहा जा सकता है। यहाँ उसका साधारण ज्ञान लाभदायक ही होगा। मन पर बाहरी वस्तुस्थिति (external expressin) का क्या प्रभाव पड़ता है उसका एक उदाहरण लें-मेरी कन्या के बिदा का अवसर था। मन अवसन्न था। आँखे गीली थीं। मेरा डेढ़-दो वष का पोता, अवधेशकुमार, मेरे कन्धे पर खेल रहा था। हाथ-पैर क्षणभर के लिए स्थिर न थे। उसे कन्धे से उतारकर गोद में लिया। उसने मेरा मुंह उदास देखा। मेरे उमड़े आंसू पर उसकी नजर पड़ी। वह हाथ-पैर उछालना भूल गया । उसका बालकिलोल न जाने कहाँ चला गया। वह भी दुखी होकर चुपचाप मेरा मुंह देखने लगा। उसको बहलाने के १. स्सना बोधरूपैय। किन्तु बोधान्तरेभ्यो लौकिकेभ्यो विलक्षणैवोपायानां विभावादीन लौकिकयैलास्यात् । तेन विभावादिप्तयोगाद्रप्सना, यतो निष्पद्यतेऽतः तथा विधरचनागोचरो लोकोत्तरोऽयो रैस इति तात्ययं सत्रस्य । -अनिनक भारती।