रस और मनोविज्ञान १५७ मनोवैज्ञानिको ने स्थिरवृत्ति के दो भाग किये है। पहली स्थिरवृति मूर्तवस्तु- विषयक ( concrete ) होती है। इसके भी दो भेद है-मूर्तजातिविषयक ( concrete general ) और मूर्तघांक्तविषयक (concrete particular)। जहाँ जाति वा किसी वर्ग का सम्बन्ध हो वहां जाति-विषयक स्थिरवृत्ति होती है। से, स्त्री-जाति, शत्रु-वर्ग, बालकवृन्द आदि। यहाँ व्यक्ति-विशेष. विशिष्ट शत्रु, मित्र आदि से सम्बन्ध हो वहाँ व्यक्तिमूलक स्थिवृत्ति होती है। दूसरी स्थिरवृत्ति है अमूर्तवस्तु-विषयक ( abstract), जहाँ मानसगोचर अमूर्त विषय होते है वहाँ यह होती है। जैसे कि समता, ममता, क्र रता, दया आदि। यह भेद कोई महत्त्व नहीं रखता। सहज प्रवृत्ति न तो मानसिक है और न शारीरिक, बल्कि दोनो का मिश्रित रूप है। इससे इसे मानस-शरीर (psycho-physical) प्रवृत्ति कहते हैं। क्योंकि, इनका उद्गम मानव तो है; पर उनकी सहचर भावना का आविष्कार शरीर से ही सम्बन्ध रखता है। आगे इनका कोष्ठक दिया गया है । मानसशास्त्र को दृष्टि से एक काव्य-पाठक के मानस-व्यापार का विचार किया जाय तो तीन मुख्य बारें हमारे सामने आती है। एक तो है उत्तेजक वस्तु ( stimulus)। यह है काव्य अर्थातू काव्य के विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी आदि। दूसरी उस उत्तेजक वस्तु के सम्बन्ध में प्रत्युत्तरात्मक क्रिया का करनेवाला सचेतन प्राणी। यह है सहृदय पाठक । और, तोसरी उस प्रत्युत्तरात्मक क्रिया (response ) का स्वरूप है उसकी सुखात्मक मनोऽवस्था। यह सुखात्मक मनोऽवस्था रसिकगत रस है जो, पाठक के कम्प नेत्रनिमौलन, आनन्दाश्र से प्रगट होता है। अभिप्राय यह कि मनोवेगों का श्रास्वादन ही रस है। यह हमारी रस-प्रक्रिया के अनुरूप ही मानस-व्यापार है। मनोविज्ञान शास्त्र का यही नवनीत है।
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