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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२५२

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रख-संख्या-संकोच १६५ रति शृङ्गार ही एक रस है व्यासदेव ने रति शृङ्गार को ही प्रधानता दी है और उसे ही एक रस माना है। उन्होंने रति को उत्पत्ति अभिमान से मानी है । वह परिपोष प्राप्त करके शृङ्गार रस मे परिणत हो जाती है। हास्य श्रादि अन्य रस अपने स्थायि-विशेषों से परिपुष्ट होकर अन्य रस बनते हैं जो उसके ही भेद है। भोज कहते हैं कि शास्त्रकारों ने शृङ्गार, वीर, करुण श्रादि दस रस माने है; पर आस्वादयोग्यता से हम शृङ्गार को ही एक रस मानते है। प्रेम ही एक रस है रति के अन्तर्गत ही प्रेम, प्रीति आदि भी मान लिये गये है। किन्तु रति में प्रेम एक विशेष स्थान रखता है। भोज ने प्रेम को बड़ा महत्त्व दिया है। कवि कर्णपूर का तो कहना है कि समुद्र में तरंग की भांति सभी रस और भाव प्रेम ही मे उन्मीलित और निमोलित होते हैं। भवभूति का प्राप्य प्रेम कवि सत्यनारायण के शब्दों में इस प्रकार है- सुख दुख में नित एक हृदय को प्रिय विराम थल । सब विधि सों अनुकूल विशद लच्छनमय अविचल ।। जासु सरसता सके न हरि कब हूँ जरठाई। ज्यों-ज्यों बाढ़त सघन-सघन सुन्दर सुखदाई ॥ जो अवसर पर संकोच तजि परनत दृढ़ अनुराग सत। जगदुर्लभ सज्जन प्रेम अस बड़ भागी कोऊ लहत ॥ कबीरदास कहते हैं- पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ हुआ न पंडित कोय । एक अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय ॥ अभिप्राय यह कि एक प्रेम हो से सब कुछ होता है। १ अभिमानादतिः सा च परिपोषमुपेयुषी । व्यभिचार्यादिसामान्यात् शृङ्गार इति गीयते । तभेदाः काममितरे हास्याद्या अप्यनेकशः। स्वस्वस्थायिविशेषोऽथ परिपोषस्वलक्षणः ||-अग्निपुराण २ शृङ्गारवीरकरुणाद् तरौद्रहास्यबीभत्सवत्सलभयानकशान्तनाम्नः । आम्नासिषुदर्श रसान्सुधियो वय तु शृङ्गारमेव रसनाद्रसमामनामः ।।-शृङ्गारप्रकाश ३ रसन्त्विह प्रेमाणमेव मामनन्ति ।-शृ० प्र० ४ उन्मजन्ति प्रेमण्यखण्डरसत्वतः! समें रसाच भावाश्च तरगा इव वारिधी ||-अलंकारकौस्तुभ