पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/२६०

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१७४ काव्यदपा नहीं होता। इसमे काव्य को गुच्छ समझिये। फूल के स्थान पर नट के अभिनय आदि को मानिये और सामाजिकों के रसास्वाद को ही फल जानिये।' ___प्राचार्यों ने काव्यगत भी रस माना है; पर वे उसे लौकिक रस कहते है, अलौकिक नही। अलौकिक रस रसिकों ही में होता है। कारण यह कि काव्यगत विभाव आदि का संबंध सीधे लोक से है, इससे लौकिक है । रमिकों को यह सामग्री साधारणीकृत होती है। अतः उनके द्वारा प्रास्वाद्यमान रस अलौकिक है। इससे यह प्रमाणित होता है कि काव्यगत और रसिकगत विभाव आदि सामग्री पृथक्- पृथक् है। यदि विभाव आदि के दो रूप-लौकिक और अलौकिक मान लेते हैं तो ये रूप वीभत्स रस में दिखाई नही पड़ते । कारण यह कि घृणित वस्तु का वर्णन पढ़ने या उसके दर्शन से द्रष्टा हो अर्थात् रसिक ही नाक-भौं सिकोड़ते हैं, छी-छी, थू-थू करते हैं। ये अनुभाव काव्यगत पात्र के नहीं, रसिक के ही होते हैं । आवेग श्रादि संचारियों के संचार रसिक से ही दिखाई पड़ते है। इस सम्बन्ध में पंडितराज इस प्रकार की शंका का उत्थान करके कि यदि कोई यह कहे कि श्राश्रय और रसिक दोनों के स्थान पर एक ही को मान लेने से लौकिक-अलौकिक का बखेड़ा खड़ा हो जावगा तो हम यही कहेंगे कि ऐसे दृश्य के किसी द्रष्टा का आक्षेप कर लेगे । न भी आक्षेप करें तब भी जैसे अपने तथा अपनी स्त्री के शृङ्गार-वर्णन के पढ़ने से पति को आनन्द होता है, वैसे वहां भी मान लिया जा सकता है । अर्थात् लौकिक और अलौकिक दोनो प्रकार के रसों के उपभोक्ता एक ही आश्रय को मान लेने से कोई हानि नहीं ; किन्तु ऐसे स्थान यर द्रष्टा का आक्षेप कोई महत्त्व नहीं रखता। रसिक या विशेष द्रष्टा या कवि में कोई अन्तर नहीं। यदि हम लौकिक और अलौकिक दोनों को रस-सामग्री पृथक्-पृथक् मान लें तो यह कठिनाई दूर हो जा सकती है। 'शेरमार खाँ शेर मारने को शमशीर लिये आगे बढ़ते हैं। पर जब बिल्ली का गुर्राना सुनते हैं तब गिरते-पड़ते भाग खड़े होते हैं।' ऐसा वर्णन पढ़ने से पाठकों को हँसो ही आती है। यहां काव्यगत पात्र के विभाव आदि भयानक रस के हैं और रसिक के ये ही सब हास्य रस के है। इस प्रकार तथा अन्यान्य प्रकार की रसगत अड़चनों को दूर करने के लिए काव्यगत नायक और रसिक दोनों को रस-सामग्री १एवं मूलबीजस्थानीयात् कविगतो रस: कविहि सामाजिकतुल्य एव । तत्र पुष्पादि- स्थानीयोऽभिनयादिनटव्वापारः फलस्थानीयः सामाजिक रसास्वादः ।-अभिनवभारती . २ तयोविभावानुभाषयोः लौकिकरसं प्रति हेतुकार्यभूतयोसिंव्यवहारादेव सिद्धत्वात् । द० २० ४,३ की टीका