रस-सामग्री-विचार १७५ का निर्देश पृथक-पृथक होना चाहिये । यह आवश्यक नहीं कि दोनों के विभाव, अनुभाव आदि सब भिन्न हो भिन्न हों। कोई-कोई एक रूप भी हो सकते हैं। एक उदाहरण से समझिये-- रामानुज लक्ष्मण हो यदि तुम सत्य ही, ___तो हे महाबाहो, मैं तुम्हारी रण-लालसा में गा अवश्य घोर युद्ध में, भला कभी होता है विरत इन्द्रजित रणरंग से ?-मधुप इसमें (१) मेघनाद के आलंबन लक्ष्मण हैं। (२) उत्साह स्थायी भाव है। (३) लक्ष्मण को ललकार उद्दीपन है । (४) लक्ष्मण की इच्छा-पूर्ति करना अनुभाव है और (५) गवं, आवेग, अमर्ष श्रादि संचारो भाव हैं। इस प्रकार यहाँ काव्यगत रससामग्री हैं। यहां यह ध्यान देने की बात है कि काव्यगत पात्र लक्ष्मण इन्द्रजित् के हो विषयालंबन होते हैं, हमारे आलंबन नहीं होते। होता है इन्द्रजित्, जिसे आश्रयालंबन कहते हैं, क्योंकि उसकी हो उक्तियां हमारे लिए उद्दीपन का काम करती हैं। इससे रसिकगत रससामग्री निम्नलिखित होगी। साधारणीकरण की बात अलग है। (१) इद्रजित् मेघनाद आलंबन विभाव, (२) इन्द्रजित् के वीरोचित स्वाभिमानपूर्ण उद्गार उद्दीपन विभाव, (३) उत्साह-दर्शक शारीरिक चेष्टा, श्रादर- भाव, रोमांच आदि अनुभाव और (४) हर्ष, औत्सुक्य आदि संचारी भाव हैं। (५) उत्साह स्थायी भाव समान है। अभिनवगुप्त काव्यगत पात्र और रसिक, दोनों में स्थायी भाव का होना मानते हैं। प्राचीन उदाहरणों में भी यह बात यायी जाती है। शकुन्तला के एक श्लोक का अनुवाद उदाहरण-रूप में लें-- राजा दुष्यन्त मारथी से कहते हैं कि देखो, यह मृग बार-बार मनोहर ढंग से मुंह मोड़कर पोछे हुए रथ को देखता है। बाण लगने के भय से अपने पिछले भाग को, अगले भाग में सिकोड़ लेता है ! दौड़कर चलने के परिश्रम के कारण खुले मुख से अधचबाये कुश मार्ग में बिखरे पड़े हैं और ऊँची-ऊँची छलांगे भर कर अधिकांश तो अाकाश में और थोड़ा जमीन पर चलता है । यह काव्यप्रकाश के भयानक रस का उदाहरण है। इस पर उद्योतकार कहते हूँ-रथ पर बैठे राजा बालंबन, बाण लगने का डर और राजा का अनुसरण
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